*टैगोर काव्य गोष्ठी/ संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ*
* संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ: दैनिक समीक्षा*
8 अप्रैल 2023 शनिवार
आज चौथा दिन रहा ।
दोहा संख्या बालकांड 77 से दोहा संख्या बालकांड 101 तक
आज श्री राम कथा का मुख्य प्रसंग भगवान शंकर द्वारा कामदेव को शरीर-रूप में भस्म करना तथा शंकर और पार्वती का विवाह-प्रसंग मुख्य रूप से रहा।
सप्त ऋषियों को भगवान शंकर ने पार्वती जी के पास जाकर उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा । उस परीक्षा में पार्वती जी सफल सिद्ध हुईं तथा भगवान शंकर के प्रति उनका प्रेम अविचल दिखाई दिया ।
दूसरी ओर उसी समय एक तारकासुर हुआ, जिसकी मृत्यु ब्रह्मा जी ने बताया कि शंकर जी के पुत्र से ही हो पाएगी । इस दृष्टि से भी भगवान शंकर का पार्वती के साथ विवाह अति आवश्यक हो गया।
अब समस्या यह है कि शिव की समाधि को भंग करके उन्हें विवाह के लिए कैसे मनाया जाए ? इस काम के लिए साक्षात कामदेव को देवताओं ने लगाया। कामदेव ने देवताओं से यह तो कहा कि भगवान शंकर का विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है लेकिन साथ ही यह भी कहा कि मैं तुम्हारा काम अवश्य करूंगा क्योंकि उपकार से बढ़कर संसार में कोई दूसरा धर्म नहीं है :-
तदपि करब मैं काजू तुम्हारा। श्रुति कह परम धर्म उपकारा।। (दोहा वर्ग संख्या 83)
कामदेव ने जब अपनी लीला संसार में प्रचारित और प्रसारित करना शुरू की, तब कामदेव के प्रभाव से सब मर्यादा समाप्त हो गई। तुलसीदास जी लिखते हैं:-
ब्रह्मचर्य व्रत संयम नाना। धीरज धर्म ज्ञान विज्ञाना।। सदाचार जप योग विरागा । सभय विवेक कटकु सबु भागा।। (दोहा वर्ग संख्या 83)
अर्थात जब कामदेव जीवन में प्रभावी हो जाता है तो ब्रह्मचर्य, व्रत, संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, वैराग्य यह सब नष्ट होने लगता है।
कामदेव किसी प्रकार भी जीवन और संसार में उपासना के योग्य नहीं हो सकता ।कामदेव की स्थिति का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी लिखते हैं :-
सबके हृदय मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु शाखा।।
(दोहा वर्ग संख्या 84)
जब हृदय में काम की इच्छा जागृत हो गई तब लताओं को देखकर वृक्षों की डालियॉं झुकने लगीं। तालाब और तलैया आपस में मिलने लगीं। चारों तरफ जब मौसम में मस्ती छा गई, तब भी भगवान शंकर की समाधि उस वातावरण में व्याप्त कामेच्छा से प्रभावित नहीं हुई । तब कामदेव ने अपना बाण छोड़ा, जिससे भगवान शंकर की समाधि टूट गई। इस पर क्रोधित होकर शिव ने अपना तीसरा नयन खोला:-
तब शिव तीसर नयन उघारा। चितवन कामु भयउ जरि छारा।।
अर्थात इस तीसरे नयन के खुलते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया। (दोहा वर्ग संख्या 86)
जब कामदेव की पत्नी रति ने विलाप किया तब भगवान शंकर ने कहा कि अब कामदेव बिना शरीर के रहेगा और इसी तरह सब में व्याप्त हो जाएगा :-
अब तें रति तव नाथ कर, होइहि नामु अनंगु
अर्थात अब कामदेव का नाम अनंग होगा अर्थात शरीर रहित हो जाएगा (दोहा संख्या 87)
जब भगवान शंकर और पार्वती के विवाह का अवसर आया और शिव जी की बरात चली, तब दूल्हे का श्रृंगार हुआ। उस सिंगार का वर्णन करते हुए तुलसीदास लिखते हैं:-
शिवहि शंभूगण करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सॅंवारा।। कुंडल कंकन पहिरे व्याला। तन विभूति पट केहरि छाला।।
( दोहा वर्ग 91)
यह सांप, जटा राख और व्याघ्र की छाल का श्रंगार था।
दूसरी ओर “कामरूप सुंदर तन धारी” इस प्रकार से लड़की वालों के यहां लोग जुटे थे (दोहा वर्ग 93)
शिवजी की बारात जब लड़की वालों तक पहुंचती है, तब बारात के स्वागत के संबंध में बहुत से कार्यक्रमों का विवरण तुलसीदास जी के काव्य में मिलता है । इसमें एक शब्द जनवास आता है:-
लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए।। (दोहा वर्ग संख्या 95)
जनवासा उस स्थान को कहते हैं, जहां बरात ठहरती है। 21 वी शताब्दी के बहुत प्रारंभिक काल तक यह प्रथा चली। इसी क्रम में सोने के थाल को हाथ में लेकर शिवजी की आरती उतारने के लिए पार्वती जी की माता मैना आगे बढ़ीं। इसके लिए परिछन अथवा परछन शब्द का प्रयोग तुलसीदास जी ने किया है ।लिखते हैं :-
कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी
(दोहा वर्ग संख्या 95)
लेकिन भगवान शंकर के अटपटे श्रंगार को देखकर सभी स्त्रियां भयभीत हो गयीं। तदुपरांत पार्वती जी की मॉं मैना भी दुखी होकर पार्वती जी से कहने लगी कि तुम कितनी सुंदर हो, जिस विधाता ने तुम्हें सुंदर रूप दिया है उस ने तुम्हारा दूल्हा कैसा बावला बना दिया? :-
जेहिं विधि तुम्हहिं रूप अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउल कस कीन्हा।।
(दोहा वर्ग संख्या 95)
पार्वती जी ने तो यहां तक कह दिया :-
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत विवाहु न हौं करौं
जब तक मैं जीवित हूं इस अटपटे वर से तुम्हारा विवाह नहीं करूंगी । लेकिन फिर नारद जी ने मैना को समझाया कि तुम्हारी पुत्री साक्षात भवानी है तथा शिव के साथ इनका विवाह सर्वथा उचित है :-
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी ।। (दोहा वर्ग 97)
तब उसके बाद विवाह का क्रम आगे बढ़ा। इसी क्रम में कुछ शब्द आते हैं । जिनमें एक शब्द जेवनारा है । हनुमान प्रसाद पोद्दार ने इसे ज्योनार कहकर टीका में बतलाया है । यह रसोई से संबंधित शब्द है (दोहा वर्ग संख्या 98)
विवाह के अवसर पर मधुर हास-परिहास कन्या और वर पक्ष के बीच चलता रहता है । तुलसीदास जी इसे लिखते हैं :-
गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि, विंग्य वचन सुनावहीं
पान खिलाने की रस्म भी भोजन के बाद चलती थी। इसका उल्लेख तुलसीदास जी करते हैं :-
अचवॉंइ दीन्हे पान गवने बास जहॅं जाको रह्यो (दोहा वर्ग संख्या 98)
विवाह के लिए पाणिग्रहण शब्द का प्रयोग शिव-पार्वती विवाह के अवसर पर तुलसीदास जी ने किया है । लिखते हैं :-
पानिग्रहण जब कीन्ह महेसा, हिय हरषे तब सकल सुरेसा (दोहा संख्या 100)
तुलसीदास ने शंकर-पार्वती विवाह के माध्यम से तत्कालीन भारतीय जनजीवन में विवाह संस्कार के समय होने वाली विभिन्न प्रकार की रस्म-रिवाजों तथा प्रयुक्त शब्दावलिओं द्वारा विवाह-विधि का वर्णन करके भारतीय लोकजीवन को मानो जीवंत कर दिया । हजारों वर्षों से भारत में विवाह की पद्धति उल्लास और उमंग के साथ भांति-भांति के लोक-व्यवहार के साथ जो मनाई जाती रही है, उन सब का चित्रण तुलसी की विशेषता है।
उस समय के वातावरण के अनुकूल पार्वती जी की मॉं मैना ने शिवजी से यह अवश्य कहा कि मैंने उमा को अपने प्राणों के समान समझा है। इसे अपनी गृहकिंकरी अब आप बनाइए:-
नाथ उमा मम प्राण सम, गृहकिंकरी करेहु (दोहा संख्या 101)
मैना ने नारी के धर्म का स्मरण कराते हुए पार्वती जी को बुलाकर उन्हें यह भी सीख दी कि तुम सदा शंकर जी के चरणों की पूजा करना और केवल पति को ही देवता मानना :-
करेहु सदा शंकर पद पूजा । नारि धर्म पति देव न दूजा
इतना सब कहने के बाद भी एक कसक मैना के मन में उठती रही और स्त्री की स्वतंत्रता के लिए उनके हृदय से एक आवाज खुलकर निकल ही आई। मैना को लगा कि स्त्री की स्वतंत्रता सर्वोपरि होनी चाहिए। जबकि वह पति के अधीन होने के कारण अपनी स्वतंत्रता का समुचित उपयोग नहीं कर पाती हैं। मैना की वेदना ने उनके मुख से कहलवा ही दिया कि स्त्रियों को न जाने विधाता ने इस जग में क्यों जन्म दे दिया है, जबकि पराधीन होने के कारण सपने में भी वह सुख की परिकल्पना नहीं कर सकतीं। आज नारी-स्वतंत्रता का प्रश्न जो बड़े जोर-शोर के साथ प्रस्तुत किया जाता है, वास्तव में उसका बीजारोपण तो शिव-पार्वती विवाह के अवसर पर पार्वती जी की मॉं मैना की वेदना से ही प्रकट हो गया था। तुलसीदास जी लिखते हैं :-
कत विधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुॅं सुख नाहीं (दोहा वर्ग संख्या 101)
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समीक्षक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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