टूटे पत्थर…
हथौड़े का भार ,
यूँ तो कम नहीं..
पर कंधे पर,
जिम्मेदारियों की गठरी..
भारी है ,
इस लोहे के बोझ से..
जिससे तोड़ पत्थर,
खरीद सकती हूं चंद निवाले..
जो बख्शते हैं थोड़ा सुकून,
क्योंकि खाली पेट,
जलती भट्टी की तरह है।
जो अक्सर निगल जाती है,
खेत, घर, ज़मीर और अस्मत;
बस यही सोच कर,
दिन भर तोड़ती हूँ पत्थर..
की एक दिन,
जब यही पत्थर एक,
स्कूल, अस्पताल, या घर की,
नींव बनेंगे..
और इस पर खड़ी होंगी,
शानदार इमारतें..
तब मेरे पसीने से भरे,
जाने कितने टूटे पत्थर..
गवाह बनेंगे, आश्रय देंगे,
न जाने कितने गरीब मज़लूमों को..
क्योंकि मैं शायद खुद के लिए,
एक घर भी न खरीद सकूँ…
और जाने कब तक इस ,
भूख और गरीबी की चक्की में पिसती..
मर जाऊँ किसी शाम,
पर ये इमारते बरसों तक रहेंगी..
गवाह मेरे हथौड़ों की,
और उस से टूटे पत्थरों की..
जो इन इमारतों की नींव में कहीं,
दबी पड़ी होंगी…