झोला
कंधे पर टंगा ये झोला
महज कपड़े का गठजोड़ नहीं है।
इसमें मां बाप की उम्मीदें और
रिश्तों की आशाएं भरी पड़ी है।
इसका इतिहास शुरू होता है
महज तीन वर्ष की उम्र से।
नन्हे कंधे तैयार किए जाते है
जीवन शिखर को छूने के लिए।।
इसको उठाते उठाते कब 18 वर्ष
बीत जाते है पता ही नही चलता।
जवानी की धारा में तिनका सा
बह रहा होता है ये झोला।
फिर अचानक पहना दिया जाता है
हमे बेरोजगारी का तमगा।
18वर्षो से तपे हुए कंधे फिर
थाम लेते है झोले की डोर।
कठिन तपस्या के बाद कही जाकर
मिलती है ये नोकरी।
फिर टिफिन,कागज,लैपटॉप से
चिपक जाते है ये झोले।।
जिम्मेदारी के बोझ से शायद
हल्का होता है झोले का वजन।
फिर से चेहरे पर मुस्कान लिए
खुद ही कंधे उठा लेते है झोला।।