झूठ बोलती एक बदरिया
आयी आयी मोर नगरिया
झूठ बोलती एक बदरिया ।
गड़ गड़ कहती थी बरसूँगी
तन मन जल ही जल कर दूँगी
पर चली गयी उमड़ घुमड़ कर
नहीं बरसी वह इह डगरिया ।
छायी बनकर घुँघराली सी
लगती कितनी मतवाली सी
कजरारे से नयन दिखाकर
सज घजकर वह चली बजरिया ।
जन – जन में है आस जगायी
पानी अंजुली भर न लायी
सभी को मानो मुँह चिड़ाकर
संग मेघ के उड़ी बदरिया ।
डॉ रीता सिंह
चन्दौसी (सम्भल)