झूठी मुस्कुराहटें
झूठी मुस्कुराहटें
माथे पर लगाकर सिंदूर औरतें,
झूठी मुस्कुराहट का मास्क लगाए,
दर्द और सच को छुपाए फिरती।
सबके उम्मीद के बोझ ढोते-ढोते।
रिश्तों के ताने-बाने में उलझे हुए।
जिम्मेदारियों की गठरी उठाए हुए।
अपने ख्वाहिशों को पंख लगाना चाहे।
जिंदगी के कोरे पन्नों को, अपने
चाहत के स्याही से, भरना चाहे।
मिला जब भी कोई हमदर्द,
आंसू बहा लिए गले लगाकर।
हर रिश्तों से अलग तन्हाई में,
ढूंढे अलग अपनेपन को।
मर्यादा की जंजीरों में जकड़े
अपमान हो ना कहीं, यह सोच के
बढ़ाए कदम डर-डर के।
सबके तीखे तेवर और
सबके उम्मीदों के पहने जेवर,
पिंजरे में छटपटाए उसे तोड़ने।
खामोश लबों पर रख मुस्कुराहटें।
शारीरिक और मानसिक कांटों की
चुभन और पीड़ा सहे हंसते-हंसते।
झूठी मुस्कुराहटों के मास्क,
लगाए चुपके-चुपके।
माथे पर लगा के कुमकुम,
झूठी मुस्कुराहटों का मास्क
लगाए चुपके-चुपके।
शादीशुदा औरतें अपने पूरी ही
उम्र बिताए डर-डर के।
रचनाकार
कृष्णा मानसी (एम एल एम)
बिलासपुर, ( छत्तीसगढ़)