*झूठा बिकता यूँ अख़बार है*
झूठा बिकता यूँ अख़बार है
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झूठा बिकता यूँ अख़बार है,
नकली सा सजता दरबार है।
काँटों में ही खिलते फूल हैं,
गुल से ही गुलशन गुलजार है।
बगिया सींचे माली रात-दिन,
खुशबू का भँवरा हकदार है।
कोई भी गम ना इस पार का,
डूबी नैया भी उस पार है।
कोई भी मूल्य ना प्यार का,
अच्छा कब होता तकरार है।
मनसीरत तो आया देखता,
मनमौजी सा टोही यार है।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)