झुलस
धरती के झुलसते आँचल को
अम्बर ने आज भिगोया है
झूम उठे वायु संग तरुवर
बूंदों में शीत पिरोया है
ये महज़ एक झांकी है
सोचो हमने क्या खोया है
हुई ताप वृद्धि क्यों ऐसे
क्यों वातानुकूलन रोया है
सूख गए जल श्रोत क्यों ऐसे
फिर भी मानव तू सोया है
बार बार कहा विद्जन ने
प्रकृति का सम्मान करो
जो भी दिया है ईश्वर ने
सोच समझकर मान करो
मत भटको अंधी दौड़ में
मत झूठा अभिमान करो
रहो आभारी सर्वोच्च शक्ति के
मत कोई अपमान करो
करो संयमित जीवन अपना
सच्चे सुख का भान करो
प्रीत से पूरित संस्कृति भारत की
एक ही ईश गुण गान करो
वातावरण से करो संयोजन
नव ऊर्जा संचार करो
लेता करवट मौसम कब कैसे
सूझ बूझ से अब काम करो
करो सरक्षित जल श्रोतो को
खुद पर तुम उपकार करो
आज प्रातः बादल यही बोले
प्रातः ईश प्रणाम करो
नहीं मात्र मनो ये कविता
थोडा तो सो विचार करो