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29 Nov 2016 · 1 min read

झुकती हैं पलकें कभी उठ- उठ देखती हैं

झुकती हैं पलकें कभी उठ- उठ देखती हैं
हसरतें उन्हीं गलियों में चल चल देखती हैं

इरादा ही है कोई ना हौसला इसमें
ठोकरों से क्या गुबार उड़ -उड़ देखती हैं

देखी है औरत और औरत की ज़िंदगी
यहाँ जीने के लिये ही मर -मर देखती हैं

कर लिया इरादा उलझने का मौजों से
अब कश्तियाँ लहरों को तन- तन देखती हैं

बहक जाने दे मदहोशी के इस आलम में
होके मेहरबां वो नज़रें कब-कब देखती हैं

तूफ़ां उठे थे कभी दम से जिसके वही साँसे
रास्ता उसी ख़ुश्बू का पल -पल देखती हैं

वही हाल अपना सा जुदा नहीं था कुछ भी
घर से निकल के ‘सरु’जो घर घर देखती है

1 Comment · 560 Views
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