जिंदगी का मुसाफ़िर
मुसाफ़िर हूँ,
जिंदगी का
और जिंदगी के सफर का,
रास्ते कुछ टेढ़े है कुछ सीधे,
कुछ उलझे हुए तो कुछ बिखरे हुए भी,
बहुत तय कर लिए अभी बहुत तय करना बाकी है,
मंजिल एक मगर लक्ष्य अनेक है,
कोई साथ नहीं लेकर जाता,
मुझे भी नहीं चाहिए कुछ भी,
फकीर तो हुंगा ही,
मगर जीत मेरे साथ होगी ही,
मेरी चेतना में मेरी रूह मैं…..
ये धरती गोल है,
मगर मैं इसे किनारों से नाप लूंगा..
जहाँ ऊंचाई है,
मैं कदम वहाँ भी रख लूंगा,
और खाई एवं घाटियों में,
आराम की सांस लूंगा,
जो हरा भरा है,
वह मेरा है,
जो धूसर सूखा है,
वह भी मेरा,
जो नापाक पाक है,
वह भी मेरा है,
यहां सारा जहां मेरा है,
मैं इसे ऐसे ही नाप लूंगा…
मुसाफ़िर हूँ,
चल रहा हूँ,
ऐसे ही चलता रहूंगा…
प्रशांत सोलंकी
नई दिल्ली-07.