झुकती हैं पलकें कभी उठ- उठ देखती हैं
झुकती हैं पलकें कभी उठ- उठ देखती हैं
हसरतें उन्हीं गलियों में चल चल देखती हैं
इरादा ही है कोई ना हौसला इसमें
ठोकरों से क्या गुबार उड़ -उड़ देखती हैं
देखी है औरत और औरत की ज़िंदगी
यहाँ जीने के लिये ही मर -मर देखती हैं
कर लिया इरादा उलझने का मौजों से
अब कश्तियाँ लहरों को तन- तन देखती हैं
बहक जाने दे मदहोशी के इस आलम में
होके मेहरबां वो नज़रें कब-कब देखती हैं
तूफ़ां उठे थे कभी दम से जिसके वही साँसे
रास्ता उसी ख़ुश्बू का पल -पल देखती हैं
वही हाल अपना सा जुदा नहीं था कुछ भी
घर से निकल के ‘सरु’जो घर घर देखती है