झील सी आंखें
याद तुम्हारी
बैरन ठहरी
नहीं देखती
दिन दुपहरी
आ जाती है
निशि दिन पल-पल
धीमे-धीमे चुपके-चुपके
छू जाती है
मन की देहरी
लाख मनाता
चंचल मन को
भूल अरे
कुछ पल कुछ छण को
फिर आएगी
सांझ सुनहरी ।
लेकिन तुम बिन
सब कुछ सूना
आ जाओ अब
खो जाने दो
झील सी आंखें
गहरी-गहरी ।
अशोक सोनी
भिलाई ।