झील का पानी
ये सोचकर मैं
वहाँ रुका रहा
कि शायद बीस वर्ष पहले
का वक़्त आज फिर लौटेगा
वहीं झील पर इंतिज़ार रंग लायेगा
शायद आज भी कहीं
यहाँ मिल जायें
वो शब्द, वो बातें
हवा में तैरती
आज फिर मेरे कानों में
सरगोशियाँ कर
उसका नर्म मुलायम
स्पर्श मुझे आकर
कहीं पीछे से छू जाये
झील के पानी से
उसका पता पूछता रहा
पानी उसका पता ज़रुर जानता था
शायद उसने इसी पानी से
मेरी शिकायतें की थीं
झील का पानी
ख़ामोश नाराज़ मुझे घूरता रहा
वो मुझसे बदला ले रहा था
उस दिन का
जब मैं उसको इसी झील पर रोती अकेली छोड़ गया था
ये सोचकर मैं
आज वहीं जड़ खड़ा रह गया…
©️कंचन”अद्वैता”