झर – झर घिरे
नव पंखुरी उग उग आएँ
मधुकर भी मधु अमृत की ओर
विपिन की नव्य जीवन खिला
हरी – हरी लताएँ पत्ते लग रहे
मानों सौन्दर्य छाई धरा के
समीर पर्वत नीर मुँह उंचकाएँ
खड़े – खड़े देख जलन में भरे
झिलमिल – सी मुँह भिचकाते
फिर दम्भ में भरें सर तनते ऊपर
ठिठूर सिकुड़ फिर सर नवाजते वो
रवि किरणें अचरज दिखे उसे देख
किस तत्व से ये खिले रहते नृत्य में ?
बढ़ – बढ़ गए उस हर – हर कोने के
उसके छाँव भी लुका छिपी लगे खेलने
मैं शर्मा – शर्माते ऊपर आएँ अंबर में
ओस बून्दे टपका शीतल – शीतल
वो भी आखिर मिलने आ गई किन्तु
न ठहरी वो भी पर्ण से गिरे अश्रुपूर्ण
रत नहीं विरत मानों अपनत्व अपार
चल फिर उठ ऊष्मीय में प्रथम तत्व बन
पिक खग चले स्वयं घर उस ओर
हरी कलि पुष्पित मुरझाई गिरे पतझर भला
शशि मुख से जुन्हाई करती कौन देखे इसके कला
झर – झर घिरे चहुँमुखी चहुँओर शृगार बिखेरती
सज धज वामा सी मयूर नृत्य कोयल स्वर धुन से
निशा जगाती उलूक को जो देती निमंत्रण झींगुर को
मंजरी महक चले चितवन में यह देखो उपवन कैसा
धूप सेंख नहाती पिन्हाती रंग रूप सुर ध्वनि के
गिरहें जोड़ हाथ मिलाती सौंदर्य बँधे हौले-हौले
पाँखे चुराएँ आँखें शर्माएँ चले ये कौन वसंत हवाएँ