*”झरोखा”*
“झरोखा”
यादों का वो हसीन झरोखा
जब नैनो से निहारा।
वो बारिश की रिमझिम फुहारें
झाँकते हुए नजारा।
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वो पेड़ हरे भरे लहराते पल्लव
बलखाते मदमस्त हवा में झूमते।
नील गगन बादलों में रात की चाँदनी निहारते।
अनगिनत तारों में चमकता
जुगनुओं सा बिखराते।
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वो चिड़ियों का चहकना फुदकना
गिलहरी का उछलना कूदना।
भवरों का गूँजन तितलियों का उड़ना फूलों पे मंडराना।
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कल्पनाओं की उड़ान भरते
सत्य की खोज आत्मसात करते
झरोखें से बैठे दूर तलक पारदर्शी
दृश्यों को प्रत्यक्ष देखते।
अंतर्मन खालीपन को भरने को
पेड़ों की ताजी शुद्ध हवाएँ लेते।
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झरोखा खुलते ही अंतर्मन शांत सरल हो जाता
जब प्रकृति की हवाओं से मन हर्षित हो जाता
सांसों का ही ये खेल निराला बिना हवा के कैसे रहे ।
मन व्यथित कठिन जीवन परीक्षा की ये घड़ी
गहन अंधकार चहुँ ओर घेर लिया है।
कैसे झांके इन नैनो से झरोखों को वो सुंदर हकीकत ख्वाबों को ….? ?
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शशिकला व्यास✍️