जो भी हो।
ज़िंदगी का ज़िंदगी पे,
असर चाहे जो भी हो,
अंत में इंसान अकेला ही है,
फिर हमसफर चाहे जो भी हो,
ख़ुद ही पहुंचता हर मुकाम पे,
फिर रहगुज़र चाहे जो भी हो,
हर मंज़िल हासिल है हौंसलों से अपने,
फिर रहबर चाहे जो भी हो,
सिर्फ ख़ामोशी है बाकी आख़िर में,
फिर ज़ुबां का असर जो भी हो,
हर रिश्ता याद बन जाता है “अंबर”,
फिर दिलबर चाहे जो भी हो।
कवि-अंबर श्रीवास्तव