जो बिकता है!
अखबार के रविवारीय परिशिष्ट में जब मैंने अपने मित्र की कहानी पढ़ी ,तो उन्हें बधाई देने के लिए और एक बात के स्पष्टीकरण के लिए फोन लगाया।
“हैलो, राज निगम जी बोल रहे हैं?”
“नमस्कार भाई साहब ! हाँ, मैं ही बोल रहा हूँ। कैसे हैं आप ?”
“नमस्कार निगम साहब! मैं बिल्कुल ठीक हूँ। आज मैंने आपको आपकी कहानी प्रकाशित होने पर बधाई देने के लिए फोन किया है। बहुत सुंदर कहानी है। आपने लिखा है कि यह सत्य घटना पर आधारित कहानी है।”
“जी, भाई साहब ! आप भी तो उस समय साथ ही थे। आपको तो उस घटना के विषय में सब पता है।”
हाँ, पता है। इसीलिए तो आपको फोन किया है। सारी कहानी पढ़ने पर पता चला कि आपने कहानी का एक पात्र बदल दिया है।आपने ऐसा क्यों किया?
“जब आपकी तबीयत खराब हो गई थी तब उस समय ,हम लोगों को बस स्टैंड तक लाने वाला ड्राइवर अब्दुल नहीं, भुवन था।”
“भाई साहब! आपको पता होना चाहिए कि जो बिकता है, लेखक वही लिखता है। इससे लोगों के बीच में साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश जाता है।”
“इससे आपका भला हो सकता है। ‘सो काॅल्ड सेकुलर’ आपको साम्प्रदायिक सद्भाव का मसीहा मान सकते हैं।”
“बुरा मत मानना, निगम साहब! ये छद्म साम्प्रदायिक सद्भाव की चादर ओढ़ने से समाज में कोई बदलाव आने वाला नहीं है। जो भी अच्छा करे उसके काम की प्रशंसा की जानी चाहिए। वह चाहे जिस मत, पंथ या मजहब का मानने वाला क्यों न हो।”
डाॅ बिपिन पाण्डेय