जो नारे लगा रहे थे
जो नारे लगा रहे थे
जो नारे लगवा रहे थे
उन दोनों का पेट भरा था
जो चुप थे …
हाॅंथ बांधे सब देख रहे थे
वो भूखे थे ….
और रोटी को सोच रहे थे
सोच रहे थे कि टीन के टूटे डब्बे में …
क्या जादू सा असर हुआ होगा … इन नारों से
क्या रात के स्याह पीठ पे
आज बच्चे मेरे भरे पेट को लिए सोएंगे
क्या आज मेरी मेहरारू के फटे आंचल से उसका छाती बाहर न झाकेगा
देहरी पे कोई सेगा साड़ी रख जाएगा
क्या मेरी बच्छिया (बेटी) के ज़बान होते बालिस्त भर कपड़े से झांकते देह पे
किसी की बुरी नज़र नहीं पड़ेगी
तभी कानों में नारा गूंज गया
“देश से गरीबी भगाओ”
चुप आदमी … चुप चाप बोला …
काहे को मसकरी करते हो “साहब” कहो …
“देश नहीं दुनिया से गरीबों को हटाओ”
~ सिद्धार्थ