जो देख रहे है मेरा काँच
जो देख रहे है मेरा कांच का घर
उस मासूम के हाथ में है पत्थर
दोस्ती टूट गई तो हादसा हो गया
अब रह नहीं गया वो मेरा रहबर
बस्तियाँ जला गया मजहब नाम पे
उसकी आँख में नहीं था दर्द का मंजर
वो तो अब बन गया खुद ख़ुदा सब का
लोगों के दिल में बाँटता फिरता डर
मैं परिंदा नदान था भूल गया सरहद
करा कत्ल मेरा और काट डाले मेरे पर
खामोश मन्दिर की घन्टिया कहती है आज
नफरत उगी चारो तरफ खेत नहीं रहे बंजर
मेरे उसके बीच जो धर्म की दीवार खड़ी हुई
अशोक इतिहास बन गया हौसला गया मर
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से