जो था पत्थर पिघल गया कैसे
कर गई काम अब दुआ कैसे
जो था पत्थर पिघल गया कैसे
जब दुआ उसको दी है जीने की
मिल गई उसको फ़िर सज़ा कैसे
ख़ुद परिन्दा गया है पिंजरे में
कोई कर दे उसे रिहा कैसे
पूछती है सवाल ये दुनिया
वो किनारा मुझे मिला कैसे
पहले सोचा के ये चढ़ा भी नहीं
अब उतर जाए ये नशा कैसे
एक हल्की सी सुगबुगाहट थी
बन गई सबकी वो सदा कैसे
हो गईं दूरियां पता न चला
फ़ासला इतना भी बढ़ा कैसे
जब लगाया है रोज़ ही मरहम
ज़ख़्म फ़िर हो गया हरा कैसे
आपने हमने जब नहीं चाहा
सिलसिला मिलने का मिटा कैसे
आज हैरत की बात लगती है
वक़्त लेकर गया क़ज़ा कैसे
प्यार ‘आनन्द’ है अगर समझो
फूल सहरा में वो खिला कैसे
– डॉ आनन्द किशोर