जोख़िम दग़ा का अज़ीज़ों से ज़्यादा
किसी के ठहरने से, वक़्त कहाँ ठहरता है,
ये सिलसिला है, मुसलसल बना रहता है।
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बेपरवाह नहीं होती, नादान ख़्वाहिशें कभी,
उल्फ़त को भी, असलियत का पता रहता है।
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गैर, गैर हैं, गैरों से दूरियाँ रक्खो, लेकिन,
जोख़िम दग़ा का अज़ीज़ों से ज़्यादा रहता है।
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मोहब्बतें भी इन दिनों ख़ासों की जाग़ीर हैं,
रिश्ता दौलतों के मुताबिक़ टिका करता है।
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किसी की आहटें, मेरे भीतर होते रहती है,
जाने कौन मेरे दिल में, डेरा बनाए रहता है।
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इन सर्द रातों में, ठंडे बिस्तर के आजू-बाजू,
दुश्वारियों का सुलगता अलाव सुकून देता है।