#- #जैसा_अपना_आना_प्यारे, #वैसा_अपना_जाना_रे।
#पगडण्डी – #जैसा_अपना_आना_प्यारे, #वैसा_अपना_जाना_रे।
#विधा – गीत १६/१४
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जीवन जग माया का मेला , क्या खोना क्या पाना रे|
जैसा अपना आना प्यारे , वैसा अपना जाना रे||
जग में आया रोते-रोते , जब जाता जग है रोता|
मिलन बिछड़ना दुख-सुख सबकुछ, इसी मध्य में है होता||
जाना पहचाना था जो कुछ, हो जाता अनजाना रे|
जैसा अपना आना प्यारे , वैसा अपना जाना रे||१||
नश्वर है यह तन अरु जीवन, सत्य नहीं स्वीकार हमें|
काम क्रोध मद लोभ में भुले, करनी है भव पार हमें||
माटी का तन हमें मिला जो, माटी में मिल जाना रे|
जैसा अपना आना प्यारे, वैसा अपना जाना रे||२||
करते हैं उत्योग बहुत कुछ, बस धन की अभिलाषा में|
धन संचय करना भी आता, माया की परिभाषा में|
छोड़ सत्य मिथ्या को जग ने, केवल अपना माना रे|
जैसा अपना आना प्यारे, वैसा अपना जाना रे||३||
देख सके जो आगे मन से , तन फिर व्यर्थ हुआ अपना|
ज्ञान नहीं तो सब मिट्टी है , टूटा फिर सुख का सपना||
उत्सुक तो तन होता मन को, कैसे भी समझाना रे|
जैसा अपना आना प्यारे , वैसा अपना जाना रे||४||
✍️पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर) पश्चिमी चम्पारण, बिहार
स्वरचित, स्वप्रमाणित