जूते की अभिलाषा
माखनलाल चतुर्वेदी जी की कविता “पुष्प की अभिलाषा” की तर्ज पर मैंने देशद्रोहियों और राष्ट्र विरोधियों के लिए कुछ लाइनें लिखी थी। एक तरफ तो मुझे इस बात की खुशी है कि इन लाइनों का तमाम लोगों ने बहुत प्रचार-प्रसार किया। दूसरी तरफ अफसोस यह है कि उन लोगों ने इसको चुराकर पेश किया।
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चाह नही मैं विश्वसुंदरी के,
पग में पहना जाऊँ।
चाह नही दूल्हे के पग में रह,
साली को ललचाऊँ।
चाह नहीं धनिकों के चरणों में,
हे हरि! डाला जाऊँ।
ए.सी. में कालीन पे घूमूं
और भाग्य पर इठलाऊं।
बस निकालकर मुझे पैर से
उस मुंह पर तुम देना फेंक।
जिस मुँह से निकले
देशद्रोह का शब्द भी एक।