’जूठन’ आत्मकथा फेम के हिंदी साहित्य के सबसे बड़े दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि / MUSAFIR BAITHA
यह हमारे लिए काफी क्लेषदायक है कि हिंदी साहित्य के सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त एवं लोकप्रिय दलित हस्ताक्षर ओमप्रकाश वाल्मीकि अब स्मृतिशेष हैं। विकराल कैंसर रोग ने उन्हें असमय ही लील लिया, जबकि साहित्य के लिए उन्हें अब भी बहुत कुछ करना बाकी था। 60 से कम उम्र में ही उनका चला जाना उनकी साहित्यिक व अन्यान्य दाय से रचना-जगत का बहुत अधिक ही वंचित रह जाना है!
ओमप्रकाश वाल्मीकि हिंदी के अबतक पहले और अंतिम ऐसे हिंदी दलित लेखक हैं जिन्हें गैरदलित हिंदी पाठक एवं लेखक सर्वाधिक जानते-मानते हैं। हिंदी की दूसरी सबसे पहले प्रकाशित (वर्ष सन 1997) मगर अबतक सर्वाधिक चर्चित दलित आत्मवृत्त उनका ‘जूठन’ ही है। जूठन ने ही उन्हें नाम दिया, उनको एक तरह से सेलेब्रिटी बनाया। मोहनदास नैमिशराय का ‘अपने अपने पिंजड़े’ (प्रथम भाग, प्रकाशन वर्ष 1995) पहला दलित आत्मकथन होने का गौरव अपने सिर धारण के बावजूद लोकप्रियता एवं महत्व पाने में पिछड़ गया। कारण, कि जिस दुःख दर्द की बेधकता व पैनापन से, गहराई, गुरुत्व एवं संजीदगी से, परिमाण से, जिस भाषाई कसावट एवं प्रांजलता से वंचना का बयान ‘जूठन’ में लिपिबद्ध हो आता है वह ‘अपने अपने पिंजड़े’ में नहीं। अलबत्ता, डा. तुलसी राम की इधर आई आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ (प्रकाशन वर्ष 2010) एवं ‘मणिकर्णिका’ (प्रकाशन वर्ष 2014) ने ख़ास, द्विज हलके में कथित ऐतिहासिक औपन्यासिक शिल्प एवं भाषायी कसावट, एवं सबसे बढ़कर द्विजों के प्रति अपने नरम रवैये को लेकर काफी नाम कमाया है।
‘जूठन’ संभवतः किसी दलित लेखक की ‘अपने अपने पिंजरे’ के बाद प्रथम पुस्तक ठहरती है जो बड़े हिंदी प्रकाशक से छपकर आई थी। हालांकि रोचक यह भी है कि बड़े प्रकाशकों ने दलित आत्मकथाओं को प्रायः उपन्यास कहकर छापा है। प्रकाशक ने शायद अनुमान किया कि आत्मकथा की अंतर्वस्तु को बतौर सत्य घटना संभवतः पाठक नहीं पचा सकेंगे। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं, “समाज में स्थापित भेदभाव की जड़ें गहरी करने में साहित्य का बहुत बड़ा योगदान रहा है। जिसे अनदेखा करते रहने की हिंदी आलोचकों की विवशता है। और उसे महिमा मंडित करते जाने को अभिशप्त हैं। ऐसी स्थितियों में दलित आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर प्रश्न चिह्न लगाने की एक सोची समझी चाल है। बल्कि यह साहित्यिक आलोचना में स्थापित पुरोहितवाद है जो साहित्य में कुंडली मारकर बैठा है। हिंदी साहित्य को यदि लोकतांत्रिक छवि निर्मित करनी है तो इस पुरोहितवाद और गुरुडम से बाहर निकलना ही होगा। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उस पर यह आरोप तो लगते ही रहेंगे कि हिंदी साहित्य आज भी ब्राह्मणवादी मानसिकता से भरा हुआ है। अपने सामंती स्वरूप को स्थापित करते रहने का मोह पाले हुए है।”1
‘जूठन’ का कई भारतीय एवं विदेशी भाषाओँ सहित अंग्रेज़ी में भी अनुवाद हो चुका है. एक मजेदार बात ‘जूठन’ के बारे में यह है कि संभवतः अंग्रेज़ी में अनूदित2 ‘जूठन’ पुस्तक संभवतः अबतक की सबसे अधिक कीमत की दलित आत्मकथा है. जहाँ इस पुस्तक के पेपर बैक (अजिल्द) संस्करण की कीमत ऑनलाइन शौपिंग (खरीद-फरोख्त साइट ‘अमेजन डॉट इन पर 1763 रुपए बताई गयी है वही सजिल्द पुस्तक की कीमत सीधे रुपए 18011.40 यानी अठारह हजार ग्यारह रुपए एवं चालीस पैसे है. अद्भुत यह भी कि चालीस पैसे भी यहाँ चल रहा है! जबकि यह किताब हिंदी में (प्रकाशक वाणी प्रकाशन, दिल्ली) इसी शौपिंग साइट पर मात्र 56 रुपए में उपलब्ध है जो बिना किसी अतिरिक्त व्यय के ग्राहकों के घर पर डेलिवर करने के आश्वासन के साथ बेची जा रही है. इस पुस्तक की अनुवादक टोरंटो के यॉर्क यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर अरुण प्रभा मुखर्जी हैं. मजेदार एवं तुलनीय यह भी है कि जो अमेरिकी प्रकाशन की अंग्रेज़ी ‘जूठन’ अमेरिका सहित विदेशों में 1763 रुपए के साथ ही 18011.40 रुपए की भी है वही अंग्रेज़ी ‘जूठन’ (अनुवादक भी वही) भारत में छपकर3 लगभग कौड़ी के भाव (रुपए 270) की हो जाती है. और, अनुमान करिये कि हम किस बाजार में खड़े हैं कि जहाँ 17 सौ रुपए की पुस्तक में 17 हजार रुपए की केवल जिल्द लग जाती है, और वह बिकती है तभी तो लगती है! लक्ष्य योग्य यहाँ यह भी है कि यह कैसी माया है कि जो ‘जूठन’ 56 रुपए में बिकती है वही अन्य कलेवर में लिपट कर 18000 का भाव भी पा जाती है? कलेवर का यह शिखर भाव? सुनहरे वर्क के छलावे की यह ऊंची कीमत? और, हैरत कि यह कलेवर, यह वर्क ऐरे गैरों के लिए नहीं ऊंचे दर्जे के बुद्धिजीवियों, उन्नत माने जाने वाले संपन्न समाज के लिए है! मुझे नहीं मालूम कि 18-18 हजार रुपए की जहाँ एक ‘जूठन’ बिकी वहाँ रायल्टी स्वरूप प्रकाशक ने प्रति पुस्तक कितने रुपए लेखक को दिए? मुझे जिज्ञासा है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि प्रकाशकों की दुनिया एवं अपनी प्रकाशित पुस्तकों की रॉयल्टी, खासकर अपनी इस ऊंची कीमत के पुस्तक संस्करण के बारे में क्या ख्याल रखते थे? मैं जब यह सब कह रहा हूँ तो जाहिरन, मेरे जेहन में सलमान रुश्दी, बिक्रम सेठ, अरुंधति रॉय एवं ताज़ा ताज़ा चेतन भगत जैसे बेशुमार प्रसार एवं रॉयल्टी बटोरू अंग्रेज़ी लेखक भी हैं.
17 नवंबर 2013 को वाल्मीकि जी ने देहरादून में अंतिम सांस ली और, दलित साहित्य के मान्य आलोचक एवं दलित साहित्य की ‘अपेक्षा’ नामक त्रैमासिक पत्रिका के संपादक डा. तेज सिंह भी इस बीच 15 जुलाई 2014 को हमारे बीच नहीं रहे. यह अजीब संयोग है कि ‘अपेक्षा’ का उनके संपादन में आया संयुक्तांक 46-47 (जनवरी-जून 2014) ओमप्रकाश वाल्मीकि की मृत्यु के बाद का पहला अंक है जिसमें वाल्मीकि पर विशेष सामग्री है. और, दुखद यह कि अंक डा. तेज सिंह के संपादन का आखिरी अंक साबित हुआ है. इस अंक में 12 पृष्ठों का हमेशा की तरह लंबा सम्पादकीय है, पर इस बार खास बात यह है कि इसकी पूरी अंतर्वस्तु ओमप्रकाश वाल्मीकि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर है और आश्चर्यजनक रूप से घोर नकारात्मक है. डा. तेज सिंह की ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचना-प्रक्रिया’ शीर्षक इस सम्पादकीय की शुरुआत वाल्मीकि की मृत्यु की सूचना से होती है और अंत श्रद्धांजलि से. सम्पादकीय बड़ा ही विस्फोटक है. पक्षपातपूर्ण एवं आक्षेपात्मक है. वाल्मीकि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को ख़ारिज करने में डा. तेज सिंह यहाँ इतने आक्रामक एवं आक्रोशित जान पड़ते हैं कि सहसा विश्वास नहीं होता कि ये वहीँ मृदुभाषी एवं हरदम अपने होठों पर मधुर मुस्कान रखने वाले शख्स हैं. दलित साहित्य के कुछ धारणात्मक एवं अन्य प्रश्नों पर इन दोनों के आपसी मतभेद इस स्तर तक कटु हो चले हैं, संभवतः सामान्य जनों को इसका भान नहीं होगा. कोई गैरदलित अथवा जानी दुश्मन भी क्या इस टक्कर का वाल्मीकि-विरोध अंकित कर सकेगा? अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि डा. तेज सिंह यहाँ काफी भीरु साबित होते हैं. कारण कि अब वाल्मीकि किसी प्रत्युत्तर अथवा सफाई देने के लिए जीवित नहीं है, और इस स्थिति को तेज सिंह ने अपनी भड़ास निकालने का कदाचित सुअवसर माना! ओमप्रकाश वाल्मीकि एवं डा. तेज सिंह के पाठकों एवं चाहने वालों के लिए यह भी अब अवसर नहीं रहा कि वे इन दोनों में से किसी से इस भिड़ंत की बाबत कोई सवाल-जवाब कर सके. डा. तेज सिंह ने वाल्मीकि के व्यवहार कुशलता की तो काफी कुछ प्रशंसा अपने इस सम्पादकीय में कर दी है पर उनके रचनात्मक अवदान के प्रशंसा-पक्ष में एक भी शब्द नहीं खरचा है, जबकि उन्हें ख़ारिज करने में आलोचनाओं की झड़ी लगा दी है.
डा. तेज सिंह ने वाल्मीकि को ‘दलित’ शब्द के इतिहास का ज्ञान न होने से लेकर उनके भाजपाई एवं संघी होने जैसे आरोप भी मढे हैं एवं अपने तरीके से उन्हें हिन्दुत्ववादी एवं जातिवादी तक साबित कर दिखाया है! उनका आरोप अन्यान्य रूपों के अलावा इन शब्दों में भी आता है-“वाल्मीकि भाजपा या आर.एस.एस. से अपने राजनीतिक संबंधों को जीवन भर छुपाते रहे लेकिन उनकी मृत्यु के बाद हुए कर्मकांड ने जाहिर कर दिया है.”4 इसी सम्पादकीय में एक जगह तेज सिंह यों टिप्पणी करते हैं- “क्या खुद वाल्मीकि जातिवादी चेतना के ब्राह्मणवादी संस्कारों से मुक्त हो पाए थे? ‘बैल की खाल’, ‘सलाम’, ‘बपतिस्मा’ और ‘अम्मा’ आदि कहानियों में वाल्मीकि के ब्राह्मणवादी संस्कारों की एक झलक मिल जाएगी.” हालांकि अंक में वाल्मीकि पर जो अन्य सामग्रियां दी गयी हैं वे डा. तेज सिंह के सम्पादकीय की तरह विद्वेषपूर्ण न होकर संतुलित विचार रखती प्रतीत होती हैं. यहाँ एक और बात ध्यान देने योग्य है कि जहां ‘दलित साहित्य अथवा साहित्यकार’ शब्द को डा. तेज सिंह ‘अम्बेडकरवादी साहित्य अथवा साहित्यकार’ पद से प्रतिस्थापित करने के पैरोकार हैं, अंक की वाल्मीकि से अलग विषय की सामग्री में भी दलित साहित्य अथवा साहित्यकार जैसे शब्दों से ही काम चलाया गया है. इससे आभास होता है कि ‘अपेक्षा’ के उक्त अंक लेखक भी डा. तेज सिंह की अम्बेडकरी-जिद्द के साथ होते नहीं दीखते. अबतक का कुल जमा हासिल यही है कि डा. तेज सिंह ‘दलित सहित’ की धारणा को ‘अम्बेडकरवादी’ साहित्य में घटाने अथवा तब्दील करने में नाकाम ही रहे. ‘आत्मकथा’ शब्द को ‘आत्मकथन’ अथवा ‘आत्मवृत्त’ कहने के अपने अभियान को भी डा. तेज सिंह सफल नहीं बना सके. दरअसल, डा. तेज सिंह की ये ‘मौलिक’ धारणाएं उसी तरह स्वीकृति नहीं पा सकीं जैसे कि अभी ‘ओबीसी साहित्य’ की टटका एवं अलबेली धारणा अस्तित्व पाने के लिए संघर्षरत होकर भी उत्तरोत्तर प्राणहीन होती जा रही है. और, डा. तेज सिंह की इन धारणाओं का सबसे मुखर एवं असरदार विरोध किसी गैर दलित हलके से नहीं बल्कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की तरफ से आया था.
वाल्मीकि कहते हैं-“ हिंदी दलित साहित्य में कुछ ऐसी बहस करते रहने की परंपरा विकसित की जा रही है जिसका कोई औचित्य नहीं रह गया है। ये बहसें मराठी दलित साहित्य में खत्म हो चुकी हैं। लेकिन हिंदी में इसे फिर नए सिरे से उठाया जा रहा है। वह भी मराठी के उन दलित रचनाकारों के संदर्भ से, जो मराठी में अप्रासंगिक हो चुके हैं। जिनकी मान्यताओं को मराठी दलित साहित्य में स्वीकार नहीं किया गया, उन्हें हिंदी में उठाने की जद्दोजहद जारी है। मसलन ‘दलित’ शब्द को लेकर, ‘आत्मकथा’ को लेकर। मराठी के ज्यादातर चर्चित आत्मकथाकार, रचनाकार ‘दलित’, शब्द को आंदोलन से उपजा क्रांतिबोधक शब्द मानते हैं। बाबुराव बागुल, दया पवार, नामदेव ढसाल, शरणकुमार लिंबाले, लोकनाथ यशवंत, गंगाधर पानतावणे, वामनराव निंबालकर, अर्जुन डांगले, राजा ढाले आदि। इसी तरह आत्मकथा के लिए ‘आत्मकथा’ शब्द की ही पैरवी करनेवालों में वे सभी हैं जिनकी आत्मकथाओं ने साहित्य में एक स्थान निर्मित किया है। चाहे शरणकुमार लिंबाले (अक्करमाशी), दयापवार (बलूत), बेबी कांबले (आमच्या जीवन), लक्ष्मण माने (उपरा), लक्ष्मण गायकवाड़ (उचल्या), शांताबाई कांबले (माझी जन्माची चित्रकथा), प्र.ई. सोनकांबले (आठवणीचे पक्षी), ये वे आत्मकथाएँ हैं जिन्होंने दलित आंदोलन को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्मित की। इन आत्मकथाकारों को ‘आत्मकथा’ शब्द से कोई दिक्कत नहीं है। लेखकों को कोई परेशानी नही हैं। यही स्थिति हिंदी में भी है। लेकिन हिंदी में ‘अपेक्षा’ पत्रिका के संपादक डा. तेज सिंह को ‘दलित’ शब्द और ‘आत्मकथा’ दोनों शब्दों से एतराज है। उपरोक्त संपादक को दलित आत्मकथाओं में वर्णित प्रसंग भी काल्पनिक लगते हैं। कभी-कभी तो लगता है कि ये संपादक महोदय दलित जीवन से परिचित हैं भी या नहीं? क्योंकि दलित आत्मकथाओं में वर्णित दुख-दर्द, जीवन की विषमताएँ, जातिगत दुराग्रह, उत्पीड़न की पराकाष्ठा, इन महाशय को कल्पनाजन्य लगती है.”5
ऐसा भी नहीं है कि वाल्मीकि की आलोचना नहीं हो सकती. वे एकदम से पाक-धवल नहीं हो सकते, दुनिया में कोई नहीं हो सकता ऐसा. मगर मूल्यांकन का एक तरीका होता है. डा. तेज सिंह ने तो यहाँ बिलकुल डा. धर्मवीर की ही ध्वंसात्मक लाइन पकड़ ली लगती है. हमें पता है कि स्त्री विरोध, प्रेमचंद पर हमले एवं कबीर के द्विज आलोचकों पर एकतरफा प्रहार करके कैसे डा. धर्मवीर ने अपने शोध, श्रम एवं महत्त्व को खुद ही चोट पहुंचाई. धर्मवीर के कबीर पर बड़े काम को भी द्विज हलके में कोई नामलेवा नहीं है, उनकी मोटी आत्मकथा ‘मेरी पत्नी और भेडिये’ को दलित साहित्य में भी बहुत मान-महत्त्व नहीं दिया जाता है तो कारण है उनका अतिरेकी चिंतन, गुड़ को भी गोबर की लपेट से उपेक्षणीय सा बना देना. कबीर को दुनिया के सामने प्रस्तुत किये जाने की जिस द्विज-भित्ति पर डा. धर्मवीर ने अपना शोध-कार्य टिकाया है उसकी को एकदम से खारिज करते उनका चलना सही नहीं हो सकता. हाँ, द्विज आलोचकों एवं साहित्यिकों द्वारा डा. धर्मवीर के कबीर संबंधी एवं अन्य आलोचनात्मक कार्यों को महत्व न देना भी कम बड़ा अपराध नहीं है और वह भी बराबर की प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई मात्र है. डा. धर्मवीर के लेखन से काफी कुछ काम का बीना जा सकता है. ‘बीसवीं सदी की हिंदी आलोचना’ नामक अपने लेख6 में बिहार मूल के हिंदी आलोचक रेवतीरमण ने 20 वीं सदी के अंत में क्रियाशील आलोचकों का जो जिक्र किया है वहाँ डा. धर्मवीर जैसा जरूरी नाम गायब है. रेवतीरमण कहते हैं, “कबीर से बड़ा आलोचक अभी तक नहीं हुआ है.”7 और, मेरा मानना है कि कबीर का डा. धर्मवीर से बड़ा आलोचक अभी तक नहीं हुआ है. अलबत्ता, कबीर के द्विज आलोचकों हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा. रामकुमार वर्मा, डा. मैनेजर पाण्डेय, डा. शुकदेव सिंह, डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल से उन्होंने जो लट्ठम-लट्ठा किया है वह एकदम से एकतरफा भी नहीं है, दम है उसमें. डा. धर्मवीर की कबीर श्रृंखला की आलोचना पुस्तकें सन 2000 कि शुरुआत में ही आनी शुरू हो गयी थी, वह भी हिंदी के एक बड़े प्रकाशन, वाणी प्रकाशन से. और इससे पहले उनके डा. तेज सिंह से भी वाल्मीकि के प्रति दुराग्रह पालने की भयावह चूक हो गयी है. निश्चय ही वाल्मीकि पर अपनी तोहमतों की इस बौछार के साथ ही तेज सिंह भी तो इस दुनिया से प्रयाण तो नहीं ही करना चाहते रहे होंगे. यदि उनकी मौत अचानक से नहीं होती तो शायद, कभी न कभी अपने इस एकतरफा एवं पक्षपाती मूल्याँकन के लिए वे साहित्य जगत एवं वाल्मीकि के समक्ष अपनी खेद, अपनी झेंप प्रकट जरूर करते!
डा तेज सिंह की कलम से वाल्मीकि की मार्क्सवाद की कच्ची-पक्की समझ पर एक रोचक टिप्पणी हम उनके आलेख ‘मार्क्सवाद और दलित साहित्य’ में देखते हैं. वे अनेक दलित साहित्यकार एवं कवि को अम्बेडकरवाद, मार्क्सवाद एवं समाजवाद की कच्ची समझ का साबित करते हुए किंचित ओमप्रकाश वाल्मीकि को भी इस मोर्चे पर घेरते हुए दीखते हैं, मगर कुछ सावधानी बरतते हुए इस तरह, “…दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि भी मार्क्सवादियों की सामाजिक क्रान्ति के नारे को सिर्फ दिखावा मानकर आलोचना करते हैं कि ‘ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं के कहकहे/सफेदपोश नेताओं के भाषण/चौराहे पर गांधी का पुतला/गलियों में/समाजवाद का नारा/मेरा मन बहला रहा है.’ (सदियों का संताप) क्योंकि देश के कम्युनिस्ट सत्तर-अस्सी सालों से समाजवादी क्रान्ति का नारा बुलंद किये जा रहे हैं पर सैकड़ों पार्टियों में बंटा वामपंथी आन्दोलन बिखराव के कगार पर खड़ा है और अपना जनाधार लगातार खोता चला जा रहा है. लेकिन अपने अगले कविता-संग्रह ‘बस्स! बहुत हो चुका’ में ओमप्रकाश वाल्मीकि मार्क्सवादियों को सकारात्मक नज़रों से देखते हैं. जैसा कि लेख के शुरू में डा. अम्बेडकर को उद्धृत करते हुए लिखा कि ‘हिंदू मार्क्सवाद के वर्ग-संघर्ष से बहुत भयभीत रहता है और सबसे ज्यादा विरोध भी वही करता है.’ इसलिए वर्णवादी हिंदू सोवियत संघ के विघटन पर बहुत खुश नजर आता है. उसी सच्चाई की ओर ओमप्रकाश वाल्मीकि इशारा करते हैं कि ‘वर्ण-व्यवस्था को तुम कहते हो आदर्श/खुश हो जाते हो/साम्यवाद की हर पर/जब टूटता है रूस/तो तुम्हारा सीना छत्तीस हो जाता है/क्योंकि मार्क्सवादियों ने/छिनाल बना दिया है/तुम्हारी संस्कृति को.’ (कभी सोचा है)
एक प्रसंग हम प्रेमचंद विरोध का लें, जिससे ओमप्रकाश वाल्मीकि भी प्रकट रूप से जुड़ते हैं. तेज सिंह ‘प्रेमचंद के दलित’8 नामक अपने लेख में कहते हैं कि प्रेमचंद ने ब्राह्मण एवं चमार को एक दूसरे के पक्के विरोधी यानी जानी दुश्मन के रूप में आमने-सामने रखकर विकसित किया है. इसलिए इन दोनों समुदाय के लोगों ने प्रेमचंद पर गंभीर आरोप लगाए हैं कि उन्होंने उनको बुरी नीयत और गलत तरीके से अपने साहित्य में चित्रित किया है. डॉ. तेज सिंह कहते हैं, “यह सब प्रेमचंद के समय में ही उनके सामने शुरू हो गया था. प्रेमचंद ने खुद इस संबंध में कई जगह पर लिखा है.”9 डा. तेज सिंह आगे लिखते हैं जिसमें वाल्मीकि का जिक्र यों आता है, “डा. विमलकीर्ति ने अक्टूबर 1993 में नागपुर शहर में ‘अखिल भारतीय हिंदी दलित लेखक साहित्य-सम्मलेन’ का आयोजन करके दलित लेखकों को विचार-विमर्श का अच्छा अवसर दिया. इस अवसर का लाभ उठाते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि ने खूब सोच-समझकर अपना पहला निशाना प्रेमचंद पर ही साधा और उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘कफ़न’ को दलित विरोधी सिद्ध करके गैरदलित साहित्य पर भी अनेक सवाल दागे. इन सवालों पर सबसे तीखी प्रतिक्रिया ‘समकालीन जनमत’ पत्रिका में हुई. ओमप्रकाश वाल्मीकि का आरोप था कि प्रेमचंद ने ‘कफ़न’ कहानी च (चमार) को बदनाम करने के लिए ही लिखी है.” छद्म प्रहार करते डा. तेज सिंह आगे वाल्मीकि पर सीधा निशाना लगाने का मौका भी यूँ ढूंढते हैं, “यह अलग बात है कि प्रेमचंद पर ऐसा आरोप लगाने वाले खुद ओमप्रकाश वाल्मीकि आज च को बदनाम करने वाली ‘शवयात्रा’ जैसी दलित विरोधी कहानी लिख रहे हैं.”10
डा. तेज सिंह ‘शवयात्रा’ पर शुरू से ही अपने आलोचनात्मक स्टैंड पर खड़े रहे हैं. यह बात और है कि इधर वे इस कहानी की सीधे मजम्मत पर ही तूल गए थे. ‘दलित कथा साहित्य का एक वर्ष और बीत गया’ नामक आलेख11 में वे आज से कोई 24 वर्ष पहले ही लिखते हैं कि “ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘शवयात्रा’ (इण्डिया टुडे, 22 जुलाई, 1998) दलित लेखकों में सर्वाधिक चर्चित और विवादास्पद कहानी रही है. ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कई वर्ष पहले प्रेमचंद की ‘कफ़न’ कहानी को दलित विरोधी कहकर कटु आलोचना की थी और वे रातों-रात हिंदी साहित्य में चर्चित हो गए. जिस साहित्यिक मानदंड के आधार पर यानी दलित चेतना के आधार पर उन्होंने ‘कफ़न’ को दलित विरोधी कहानी कहा था, क्या उसी मानदंड के आधार पर ‘शवयात्रा’ को दलित चेतना विरोधी कहानी नहीं ठहराया जा सकता है? निश्चित ही यह दलित चेतना विरोधी कहानी मानी जानी चाहिए, क्योंकि वाल्मीकि जी ने इस कहानी की शुरुआत नकारात्मक दृष्टिकोण से की है. मानो अछूतों में अछूत बल्हार जाति का कल्लन ही चमारों का सबसे बड़ा दुश्मन है.” डा. तेज सिंह यहाँ सही प्रतीत होते हैं, और, आगे अपनी शिकायत को इन तर्कों से बलित करते हैं, “यह सही है कि दलित जातिओं में भी जातिगत भेदभाव व्याप्त है पर यह समाज का मुख्य अंतर्विरोध नहीं है बल्कि गौण है, जिसे सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में धीरे-धीरे खत्म किया जा सकता है. दलित जातियों का मुख्य दुश्मन उसके अपने समुदाय के लोग नहीं बल्कि ब्राह्मणवाद और सामंतवाद है जिसके खिलाफ ओमप्रकाश वाल्मीकि सहित सभी दलित साहित्यकार एकजुट होकर लड़ रहे हैं.” यहाँ कहानी पर डा. तेज सिंह के मत से अलग एक द्विज टिप्पणी को लेना भी आलोचना के गैर-द्विज ऐंगल से जरूरी साक्षात्कार होना चाहिए. इस आसंग में ‘हिंदी साहित्य में दलित दावे और जनवादी अपेक्षाएं’ नामक लेख में डा. पी. एन. सिंह का रवैया देखें, “…ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘शवयात्रा’ ने दलित बुद्धिजीवियों को अपनी वास्तविकता से साक्षात्कार कराया है. यह कहानी बताती है कि यांत्रिक अनुभूतियों के स्तर पर्सभी अपने-अपने दायरों में विवश हैं, विभाजित हैं, संकीर्ण हैं.”12
दलित साहित्यकार का आपसी सिर-फुटौव्वल काफी विचलित करने वाला एवं चिंतनीय है. दलित साहित्य (वार्षिकी) 2013 में सम्पादकीय लिखते हुए जयप्रकाश कर्दम ने वर्ष 2012 में जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ्रिका)में हुए विश्व हिंदी सम्मलेन में दलित लेखक डा. श्योराज सिंह बेचैन द्वारा जहाँ-तहां लिख-बोलकर उनपर उपेक्षा का इल्जाम लगाने की बाबत अपना पक्ष रखते हुए अपनी निराशा एवं अपना कंसर्न वृहतर सन्दर्भों में यूँ आक्रोशमय अभिव्यक्ति की है, “….आज कई स्थापित दलित रचनाकार सार्थक लेखन से कहीं अधिक रुचि एक-दूसरे पर कीचड़ उछलने और नीचा दिखाने में ले रहे हैं या कहिये, एक-दूसरे पर लांछन लगा रहे हैं. यह दलित साहित्य में लांछनवाद का प्रतिवादन या नई धारा का उदय है.”
बहरहाल, यह देखकर काफी खुशी होती है कि यू-ट्यूब पर वाल्मीकि के कविता-पाठ के दो वीडियो उपलब्द्ध हैं. मुझे तो उनको किसी सभा-गोष्ठी में सुनने का कोई सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ था, पर उनकी आवाज़ में उनकी कुछ कविताओं को इस वीडियो की मार्फ़त देखने सुनने का मौका मिला है. इस दृश्य-श्रव्य विडियो में कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘ठाकुर का कुआं’, ‘चोट’, ‘शम्बूक का कटा सिर’, ‘तब तुम क्या करोगे’, ‘लेखा-जोखा’, ‘अस्थि-विसर्जन’ एवं ‘आईना’ जैसी अपनी कविता को अपना दमदार स्वर देते दीखते हैं. संकेत मिलता है कि इन कविताओं को वे अपनी सर्वश्रेष्ठ काव्य-रचनाओं में शुमार करते थे और इनका सार्वजनिक मंचों से पाठ करना उन्हें बेहद पसंद था. उनके निधन के बाद उनकी जिन्दा तस्वीर एवं आवाज का महत्त्व बढ़ जाता है. ये चीजें अब तो साहित्यिक धरोहरों के तहत आएंगी, और ऐसी तमाम बच गयी चीजों को यथासंभव सहेजा जाना चाहिए.
ओमप्रकाश वाल्मीकि की यदि नई-नवेली साइबर दुनिया में तलाश की जाए तो बहुत आश्वस्तिपरक उपस्थिति तो नहीं, पर उनके बारे में काफी कुछ सामग्री उपलब्ध है. समय तो ऐसा है कि अब किसी भी रचनाकार का पूरा लेखकीय अवदान ब्लॉगों, वेबसाइटों, फेसबुक आदि के जरिये इस आभासी सूचना एवं ज्ञान जगत में भी अवस्थित होना चाहिए. साइबर स्पेस में मेरी पड़ताल बताती है कि वाल्मीकि के मुकाबले कुछ अदने से गैर दलित साहित्यकार भी अपनी रचनाओं के साथ काफी अधिक स्पेस लेकर यहाँ मौजूद हैं. हाँ, यह जरूर है कि हिंदी दलित साहित्यकारों में सबसे अधिक व्यापक उपस्थिति साइबर-संसार में भी ओमप्रकाश वाल्मीकि की ही है. मशहूर साइबर ज्ञान-कोश विकिपीडिया के अंग्रेज़ी एवं हिंदी दोनों वेबसाइटों पर ओमप्रकाश वाल्मीकि की उपस्थिति है पर ये पृष्ठ बहुत संपन्न नहीं है. काफी संक्षिप्त जानकारी ही यहाँ अबतक जुटाई गयी है. मसलन, हिंदी विकिपीडिया में ‘रचनात्मक अवदान’ वाला कॉलम महज चार छोटे-छोटे वाक्यों में निपटा दिया गया है. अंग्रेजी विकिपीडिया में ‘जूठन’ को कहीं उपन्यास बता दिया गया है तो कहीं आत्मकथा. ‘भारतीय साहित्य संग्रह’ नामक ब्लॉग पर उनकी कालजयी आत्मकथा ‘जूठन’ के कुछ अंश आत्मकथाकार के पुस्तक में अंकित वक्तव्य के साथ प्रदत्त हैं. जबकि इस जरूरी पुस्तक का पूरा पाठ कहीं साइबर स्पेस में उपलब्ध होना हमारे समय की मांग है.
और, अंत में ओमप्रकाश वाल्मीकि पर कुछ अपनी बात. जिस दिन वाल्मीकि का निधन हुआ उस दिन मैं एक व्यक्तिगत कार्य से हैदराबाद जा रहा था. शाम में पटना रेलवे स्टेशन पर ट्रेन पकड़ने के लिए इंतज़ार में था तो गया में रहने वाले दलित कथाकार बिपिन बिहारी ने फोन पर सूचना दी कि ओमप्रकाश वाल्मीकि नहीं रहे. उन्हें भी उनके किसी मित्र ने फोन पर ही सूचना दी थी. इस बीच पड़ोसी एवं सहकर्मी कवि राकेश प्रियदर्शी ने भी मुझे फोन कर यह इत्तिला दी. जब मोबाइल पर इन्टरनेट के माध्यम से फेसबुक खोला तो कई लोगों ने उस समय तक यह दुखद सूचना साझा कर ली थी. सबसे पहले नोटिफिकेशन में मेरी नजर दलित लेखक कैलाशचंद चौहान की तरफ गयी, उनके कॉमेंट में वाल्मीकि के देहावसान की ब्योरेबार सूचना थी. उन्होंने वाल्मीकि के साथ अपने घरेलू संबंध से लेकर बीमारी के दौरान उनके साथ अस्पताल में बिताए अपने समय, सेवा-सूश्रुषा एवं अपनी भागदौड़ की चर्चा की थी.
वाल्मीकि से मेरा सीधा संबंध कभी नहीं रहा. उनसे किसी साहित्यिक गोष्ठी – सम्मलेन आदि में भेंट-मुलाकात का भी कोई अवसर नहीं मिला. केवल कुल मिलाकर दो मौकों पर फोन से बातचीत करने का अनुभव है. एक बार तो मैंने उनकी ‘हंस’ में छपी किसी कहानी पर बात की थी जिसके कथ्य में मुझे बनावटीपन लगा था. कहानी के कुछ प्रसंग मुझे साफ़ गढे हुए एवं जीवन से असम्पृक्त लगे थे.उन्होंने इसपर अपनी सफाई काफी संयत होकर दिया था, हालांकि मैं उनके इस फीडबैक से संतुष्ट नहीं हुआ था. दूसरे अवसर पर मैंने अपने कार्यालय से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक-वैचारिक पत्रिका के लिए रचना मांगी थी. उन्होंने सरकारी पत्रिका जान मुझसे पारिश्रमिक मिलने के बारे में जानकारी मांगी थी, और, सूचना नकारात्मक पाकर, आशानुकूल न पाकर रचनात्मक सहयोग देने का कोई वादा उनने न किया था.
पाद-टिप्पणियाँ
1. महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की वेबसाइट ‘हिंदी समय’ पर वाल्मीकि का आलेख ‘दलित साहित्य के पुरोहित’
2. जूठन (अंग्रेज़ी), प्रकाशक, कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, अमेरिका, मूल्य , 15/18 जुलाई, 2003, लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि
3. जूठन (अंग्रेज़ी), प्रकाशक, भटकल एवं सेन, भारत, प्रकाशन तिथि 01 अक्टूबर 2003
4. ‘अपेक्षा’, संयुक्तांक 46-47 (जनवरी-जून 2014), संपादक डा. तेज सिंह
5. वही
6. बीसवीं सदी का हिंदी साहित्य, पृष्ठ संख्या 182-206, संपादक, डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण 2005
7. वही
8. पहल – 80, अंक जुलाई-अगस्त 2005, संपादक ज्ञानरंजन
9. वही
10. वही
11. दलित साहित्य 1999, संपादक जयप्रकाश कर्दम
12. तद्भव, अंक 4, सन 2000, संपादक अखिलेश
आलेख : डा. मुसाफ़िर बैठा
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