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23 Apr 2017 · 1 min read

जुल्‍म वाे ढहाती रही जुल्‍फ वो सुलझाती रही

जुल्‍म वो ढहाती रही जुल्‍फ वो सुलझाती रही ,
करके अ‍‍क्षि तीर से घायल वो इस कदर जाती रही,
वो यु हमे तडपाती रही हमसे दुर वो जाती रही,
करके हम पर सितम वो दुसराे को अपनाती रही,
ह्रदय घात सहते रहे वो हमे रिझाती रही,
वो मिली हमे एक अरसे बाद मगर हमसे ऑख चुराती रही,
छोडकर गयी थी वाे हमे इस कदर जैसे रूह से श्‍वास जाती रही,
वो अपने नन्‍ने मुन्‍नो को गहलोत की गजल सुनाती रही ,
छुप रहे हम छुप रही वो मगर आॅख यु भरमाती रही ,
भरत के किस्‍से सुनकर आ रहे आॅख से आॅसु सबके,
मगर वो हॅसती रही खिलखिलाती रही ,
फासले कुछ इस कदर बढे दिलो के वो हमे भुलाती रही,
मगर हमे वो याद आती रही ,
जुल्‍म वो ढहाती रही जुल्‍फ वो सुलझाती रही ,

भरत गहलोत
जालाेर राजस्‍थान
सम्‍पर्क सुञ – 7742016184

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