खिल कर कली किधर को चली
खिल कर कली किधर को चली
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बन कर कली है वो खिली,
खिल कर कली किधर को चली।
है महक महकाती मन विरही को,
इधर-उधर जिधर भी हो मनचली।
फूलों से लदी हर डाली ही सारी,
हिलोरे खाती सदा झुकती ही रही।
भंवरे मंडराते बन कर के शिकारी,
पलभर में जान सूली पर थी टंगी।
देखी है चुपके से ओस की बूंदें,
हट गई झट से जो थी धूल जमी।
पत्तियां हवा में हिलती मनसीरत,
गर्मी में सभी को राहत सी मिली।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)