जुल्म की इन्तहा
“ जुल्म की इन्तहा ” करके “ जहाँ ” में वो वफ़ा की उम्मीद करते ,
खुशियाँ छीनकर “जग के मालिक” से खुशियों की उम्मीद करते I
प्यार के गुलशन में “गुनाह” करके वो जरा भी “उफ” नहीं करते ,
हम अगर “उफ” भी करते हैं , तो उसे वो “गुनाह” का नाम देते ,
गुलशन में आग लगाकर “ प्यार के फूलों ” की उम्मीद करते ,
इंसानियत को तार-2 करके जग में अच्छाइयों की उम्मीद करते ,
“ जुल्म की इन्तहा ” “जहाँ ” में करके वो वफ़ा की उम्मीद करते ,
खुशियाँ छीनकर “जग के मालिक” से खुशियों की उम्मीद करते I
बहन-बेटियों की आबरू से खेलकर तुझे क्या मिलेगा ?
नफरत की दीवाल से घरोंदा सजाकर तुझे क्या मिलेगा ?
“भारत के आँगन ” में कांटे बिछाकर तुझे क्या मिलेगा ?
जीवन के खाते में गुनाहों को बढ़ाकर तुझे क्या मिलेगा ?
“ जुल्म की इन्तहा ” “जहाँ ” में करके वो वफ़ा की उम्मीद करते ,
खुशियाँ छीनकर “जग के मालिक” से खुशियों की उम्मीद करते I
“समझ –ए नादान इंसान” जग में फिर दुबारा मौका न मिलेगा ,
“ प्यार के फूल ” खिला दे जग में फिर दुबारा मौका न मिलेगा ,
“इंसानियत का दीपक” जला दे जग में फिर दुबारा मौका न मिलेगा ,
“राज” डर उस “जग के रखवाले ” से फिर दुबारा मौका न मिलेगा ,
“ जुल्म की इन्तहा ” “जहाँ ” में करके वो वफ़ा की उम्मीद करते ,
खुशियाँ छीनकर “जग के मालिक” से खुशियों की उम्मीद करते I
देशराज “राज”
कानपुर