✍️जुर्म संगीन था…✍️
✍️जुर्म संगीन था…✍️
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उम्मीद पे खरा उतरु ये तेरा अज़ीब यकीन था
मैं खुदा नहीं,खुदा के लिए भी ये नामुमकिन था
आसमाँ के बुलंदियों को छूना आसाँ नहीं होता
अर्श से फर्श पर गिरना मेरे लिए भी तौहीन था
हमने तो सारी खुशियाँ सबके हिस्से की बाँट दी
एक तेरे महफ़िल में गम बाँटने का जुर्म संगीन था
मुद्दते गुजरी थी उसको मिले,पूछा हाल कैसा है?
चेहरा मायूस था पर अंदर मिज़ाज बड़ा रंगीन था
मेरे ना होने का दर्द सता रहा होगा तेरे कूचे को
नाशाद रही जिंदगी इश्क़ में और मैं ग़मगीन था…
हरा था या केसरी किस रंग में रंगाई थी वो चुनरी
हमें तो बस इतना याद है वो रंगरेज़ बड़ा हसीन था
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✍️”अशांत”शेखर✍️