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16 Oct 2016 · 1 min read

*जुबां*

1222 1222 1222 1222

सदा बोलो सँभलकर ही जुबां तलवार होती है!
नज़ाकत से रखो इसको ये’ तीखी धार होती है !!
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निराली हर अदा इसकी सभी का दिल लुभा लेती!
कभी ये फूल बन जाती कभी अंगार होती है!!
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सफ़र में ज़िन्दगानी के हमेशा साथ ही रहती!
कभी मँझधार अटकाती कभी पतवार होती है!!
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बशर का दिल दुखाये जो न ऐसे बोल तुम बोलो !
जुबां करती अदावत तो बड़ी मक्कार होती है!!
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मुसाफ़िर के तरानों में मुकम्मल बात है कहती!
हकीकत को बयाँ करती नहीँ बेकार होती है!!
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धर्मेन्द्र अरोड़ा’मुसाफ़िर’

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