जुदा होकर सितमगर हो गया है
मेरी पहचान दिलबर हो गया है
जुदा होकर सितमगर हो गया है
यही इक हादसा होना था बाक़ी
जो दिल था मोम पत्थर हो गया है
बड़ी मीठी ज़ुबाँ थी उसकी लेकिन
ज़ुबाँ से वो भी नश्तर हो गया है
चुभा सीधा वो अन्दर दिल के मेरे
किसी का तंज ख़ंजर हो गया है
समुन्दर बन के क़तरा बोलता था
कोई जादू यहाँ पर हो गया है
पहनकर झूट नेता बोलते हैं
उसी का नाम खद्दर हो गया है
सियासत की या कुदरत की वज़ह से
परेशां आज हलधर हो गया है
लुटेगा क़ाफ़िला या तो बचेगा
लुटेरा फिर से सरवर हो गया है
मुहब्बत ये मिली है इस जहाँ से
ग़मे-आनन्द घर-घर हो गया है
– डॉ आनन्द किशोर