जुदाई तन मन खा रही
जुदाई तन मब खा रही (ग़ज़ल)
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तुम कहाँ पर हो मैं मरती जा रही।
हूँ अकेली बैठी मैं घबरा डरा रही।
याद आती रहती तुम आते नहीं,
छोड़ कर सब आई हूँ पछता रही।
हर शजर से प्यारी हैं यादें जुड़ी,
तेज चलती पवनें भी तड़फा रही।
रात भर मेघों ने बरसाया कहर,
आग सीने में बूँदे सुलगा रही।
प्यार में अरमानों की बोली लगी,
यार तेरी थाती मैं जुठला रही।
जान तेरी रग रग में मेरी बसे,
प्रेम भावों की लहरें टकरा रही।
नींद में सोया मनसीरत है उठा,
ये जुदाई तन मन को है खा रही।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)