जुत्ते बाहर उतारें : लाचारी / बृजमोहन स्वामी ‘बैरागी’ की घातक कविता
एक लाचारी है,
जो ब्याह की तरह हंसती है
आगे और लिखा जा सकता है
यह बात
कहीं नही छापी गई है
इसलिए जिन्दा है अभी
बिल्कुल गुलाब की तरह,
और छापना भी कहाँ?
अख़बार में ? दीवार पर ?
या … रसोईघर में हल्दी के डिब्बे पर?
मैंने लाचारी की बात की है साहेब!
जो ज़िंदगी के हर बुरे दौर में
इंसान के साथ रही हो
यहाँ तक कि
जब नौकरी की तरह
रेलगाड़ी और बस
छूट गयी थी,
तो भी साथ थी
रेंगते हुए आई थी।
हम वो सब नही पढ़ते
जो अंधेरों में घुटकर
लिखी गई हो
या फिर
मरते वक़्त बोली गई हो
हम पढ़ते हैं
विडम्बना और थूक में
उबाली गई कविताएँ और कहानियाँ,
जिनमे पात्र का खून
नही रिसता
सरकारी नलके की तरह।
ये पसीने की आखिरी बूँद,
दिन-रात काम करके घर चलाती रही
जब मुझे गोली मारी गयी
तब भी लाचारी पास थी।
लक्ष्मी प्राप्ति के अचूक उपाय
ढूंढने की ज़िद,
तड़क भड़क के शहरों
और
महंगे डियो की कीमत में
हमने अपना घर
खो दिया
तब भी वह बिल्कुल पास थी।
अब कलम पकड़ने वाली
अंगुलियां भी
कमज़ोर हो चली है
तब भी बगल में है लाचारी।
क्या हम नुक्कड़ पर
कँटीली हँसी छोड कर
आगे बढ जाते हैं ?
क्या हम तब भी रोये,
जब हमें जेब में पैसे मिले?
तो सुनो …
आँसुओं की तीन बूँद
गालों पर
जबरदस्ती नही लुढ़काई जा सकती,
“भूलना” सिसकियो का रुप नही है,
बार बार
छाती चौड़ी करके
नही निकाले जा सकते
दो हज़ार के गुलाबी नोट
और
टूटे हुये लोग नही चाहिये
संविधान लिखने को।
जब मैं इन सब बातों पर
गौर करता हूं तो मुझे लगता है
कि
लाचारी हमेशा
दुर्भाग्य ही लाती रही है।
ऐसा नहीं है
कि लाचारी सिर्फ एक शब्द है
पर यहाँ “समझने” जैसी
कोई चीज़ नहीं है।
फिर भी,
मेहमान आते देखकर
“जुत्ते बाहर उतारें” की पर्ची मुहं में चिगलते हुए
चाय बनाते समय
कई लोगो की जुबान
काटी जा सकती है,
लाचारी के साथ।
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©कॉपीराइट
Brijmohan swami ‘beragi’
बृजमोहन स्वामी ‘बैरागी’