” जी हुजूरी का नशा”
” जी हुजूरी का नशा”
जहां देखें वहां फैला गुमनाम भय
व्यापत मुझे नजर आ रहा है
जी हुजूरी की लग गयी लत सबको
मानव निज स्वाभिमान तजता जा रहा है,
किसी को मजबूरी ने झुकना सिखा दिया
कोई अर्न्तमन से स्वयं स्वीकार रहा है
संतान मोह ने सिखाई परिभाषा रिश्वत की
सदैव हां जी- हां जी ही पुकार रहा है,
भयावह जीवनशैली में विरोध करना भूला
जैसा मिला माहौल वैसे ढ़लता जा रहा है
ईमानदारी की जंजीरें गल गई रिश्वती जंग से
बेईमान व्यंग्य की हंसी संग गर्दन झुका रहा है।