जी दुखता है
लावणी छंद
जी दुखता है मरते देखा, जब जब सैनिक सीमा पर।
धधक रही है ज्वाला मन में, है प्रत्युत्तर धीमा पर।
शस्त्र चला देते हैं अक्सर , छुप कर सोते वीरों पर।
ऐसे नर- पशु को सुलवा दो, भले बिषैले तीरों पर।
बातों का क्या नारों का क्या अक्सर ही चलते रहते हैं।
राजनीति की बढि चढकर ये, वीर हमारे मरते हैं।
कब वो दिन आ पाएगा, जब घर में घुसकर मारेंगे।
जिन हाथों ने आग लगाई, कब वो हाथ उखाडेंगे।
मोल चुकेगा कब आखिर, वीरों के बहते शोणित का।
कब तक शोक मनाए भारत, शोणित से तन रंजित का।
अंकित शर्मा ‘इषुप्रिय’
रामपुर कलाँ,सबलगढ(म.प्र.)