जी चाहता है
वो हुस्ऩ -ए – मुजस्स़म मुमताज़ किसी तआ’रुफ़ का मोहताज़ नहीं,
उस नज़र- ए – नाय़ाब को किसी तारीफ़ की
दरकार नहीं,
इक शोला सा है भड़का ,
कय़ामत के भेस में ,
इक नूर -ए – अज़ल जलवागर है ,
हक़ीक़त के रूप में ,
चेहरा है इक ,
गुलाब सी रंगत लिए हुए ,
गेसू ऐसे खुले हैं , जिनसे धोका हो
मिस्ल -ए-अब्र का ,
झील सी नीली हैं आंखें , उमड़ते जज़्बातों का
सैलाब़ लिए हुए ,
जिनमें डूब कर मैं खुद को
भूल जाना चाहता हूं ,
अपना वुजूद खोकर मैं उनमें
फ़ना हो जाना चाहता हूँ ।