जीव कहे अविनाशी
नश्वर घट में बैठे-बैठे, जीव कहे अविनाशी
अब तक मुझको जान न पाए, उम्र बीत गई खासी
मनुज देह की कदर न जानी, करते हो मनमानी
नश्वर जग को सांचा समझा, मैं हो गई अंजानी
मनुज देह पाई है मैंने, सुन धरती के वासी
पल पल का आनंद उठा ले, छोड़ प्रमाद उदासी
चंद रोज का साथ तुम्हारा, चंद रोज का जीवन
कब यह तन माटी हो जाए, सोच जरा मूरख मन
कब से बैठा हूं घट भीतर, फिर भी जान ना पाए
अपने मन की करते करते, अब तक बाज न आए
सांचा प्रेम किया न जाना, क्यों फिरते भरमाए
माया से इतने लपटाए, खुद को जान न पाए
मैं माटी की देह नहीं, जो पानी में गल जाऊं
न में शुष्क काठ हूं बंधु, अग्नि में जल जाऊं
मैं भी हूं अनंत अविनाशी, अमर जीव कहलाता हूं जन्म जन्म के कर्म भोगने, मृत्यु लोक में पाता हूं
बड़े भाग से मनुज देह, मित्र तुम्हारी पाई
अब तक जो न जान सका, यह ज्ञान कराने आई
कर्मों के अटूट बंधन से, मुक्त न अब तक हो पाया
कर्म और कर्तव्य में अंतर, अब तक न में कर पाया
जाने कब से भटक रहा हूं, खुद बंधन में अटक रहा हूं समझ ना पाया कृष्ण की गीता, सुख दुख में ही लटक रहा हूं
न में जीव ब्रह्म को जाना, न नश्वर संसार
लोभ मोह और मत्सर में, जीता रहा असार
खेल-खेल में बचपन बीता, राग में गई जवानी
चौथापन कष्टों मै बीता, खत्म हो गई कहानी