जीवन
एक उलझी किताब है जीवन।
हाँ..! मग़र लाज़वाब है जीवन।
है उफनता हुआ सा इक दरिया,
या छलकती शराब है जीवन।
मुश्किलों से न तोड़ रिश्ता यूँ,
बस इन्हीं का हिसाब है जीवन।
ये तमाशा नहीं कशाकश है,
कौन कहता खराब है जीवन।
हाँ……! यक़ीनन हज़ार काँटों में,
एक खिलता गुलाब है जीवन।
क़ैद कर मत इसे उसूलों में,
आजकल बेहिसाब है जीवन।
चाह इस आसमां को छूने की,
इन “परिंदों” का ख्वाब है जीवन।
पंकज शर्मा “परिंदा”