जीवन से अनजान
हो जाता है खाक,
ये बदन सभी का
जिस्म एक दोखा है
ये नही है किसी का ।
मैं भी एक राही हूँ
इसी अनजान डगर का
मेरा भी वही अंजाम है
जो होता है सभी का ।
मिल जाऊंगा एक दिन
मिट्टी बनकर, पैरों में
धूल बनकर उडूँगा हर जगह
दोस्तों और गैरों में ।
ना प्यार कर बेइंतहा,
इस गुस्ताख़ बदन से
दे देगा दोखा तुझे कभी भी
कुछ ना बचेगा कसम से ।
हवा बनकर खो जाऊंगा
इस भीड़ की सांसो में
झूठ बोलकर क्या मिलेगा
आकर भीड़ की बातों में ।
किस पर करूँ विस्वास जब
मुझे खुद पर यकीन नही
चाहिए भर पेट रोटी वस
फिर भागता हूँ हर वक्त कहीं कहीं ..?
आज को मुर्दा कर
कल को कैसे हँसाऊ
हर वक्त की कीमत है
आज को कैसे भुलाऊँ ।
ना काबिल हुआ कोई
जीवन के प्रत्येक पहर में
कोई रोया है दिन में तो
किसी की आँखों मे उतरा है सागर रातों में।
आँखे खोलकर लगी है,
दौड़ अंधों की हर कहीं
सब छोड़ना है यही पर
फिर भी बांध रहे हैं गठरी नोटों की ।
आसान होगी डगर
जब हल्की होगी गठरी सफर की
लडखडाते हुए जाना पड़ेगा
जब गठरी होगी भारी सी ।
जिस पुत्र मोह में मद मस्त हो
कल वही जला देगा तुम्ही को
सब कमाई रखेगा तुम्हारी
और भुला देगा तुम्ही को…।।
प्रशांत सोलंकी
नई दिल्ली-07