जीवन-रंग
-:जीवन-रंग:-
ऊसर धरा को उर्वर कर तुम
आज मुझे खिल जाने दो,
खो गया था खुद से मैं कबका
पर अब खुद से मिल जाने दो।
कई बरसों की तप्त धरा पर
प्रीत का मेह बरस जाने दो,
मिट्टी की भीनी खुशबू को
सांसों में सरक जाने दो।
ऊसर धरा को…………
तन को छोङो मन को छोङो
रुह को रुह में समा जाने दो,
धरती को खङताल बजाने
और गगन को गाने दो।
ऊसर धरा को…………..
ध्वस्त करो इन जाति-धर्म को
विष को अमृत बन जाने दो,
पशुवृति में लिप्त मनुज को
अब तो इन्सां बन जाने दो।
ऊसर धरा को………………
बूँद-बूँद में बंटे है हम-सब
अब तो सागर बन जाने दो,
निश्छल उर के इन लब्ज़ों को
अधर गान तो बन जाने दो।
ऊसर धरा को………………
बन्धन की इन बद गांठों को
प्रेम की पीङ में जल जाने दो,
प्रपंचों की पतित कैद से
अब तो मुझे निकल जाने दो।
ऊसर धरा को………………..
दुनिया के दंगल से निकलो
खुद को खुद में ढल जाने दो,
ज्योतिर्मय जीवन कर अपना
खुद को खुद में मर जाने दो।
ऊसर धरा को………………
-:रचयिता:-
के.वाणिका
‘दीप’