जीवन गीता
पहचान इंसान की तन से नहीं,
उसके किए कर्म से होती है।
बदल देता है लेख नियति का
और अपना भाग्य कर्मनिष्ठ मानव।
जिस दिन कठिन कर्म पगडंडी पर
चलता मानव ठहर जाएगा।
हो जाएगा अस्तित्वहीन
ठहरे हुए गंदले पोखर सा।
गतिशील रहते हैं सूर्य, चन्द्रमा,
पृथ्वी भी अनवरत गतिशील।
कार्य जरूरी है सृष्टि के लिए
अकर्मण्य को नहीं सहती सृष्टि।
यदि जीना है तुम्हें ,कर्मण्य बनो
फिर संघर्ष में जीत मिले या हार।
कर्म ही वरेण्य है फल नहीं
यही इस जीवन की गीता है।
— प्रतिभा आर्य
अलवर (राजस्थान)