जीवन क्षणभंगुरता का मर्म समझने में निकल जाती है।
स्वयं के अक्स की पहचान, धूमिल सी हो जाती है,
विपत्तियों की गाठें जब, जीवन की डोर में लग जाती हैं।
खुशियों के क्षण तो, पलक झपकते खो जाते हैं,
पर ये जो दुःख के बादल हैं, बरसों तक मंडराते हैं।
आँखों में लगा काजल, बुरी नज़रों से तो बचाता है,
पर आंसुओं की बरसात में, वही चेहरे को स्याह कर जाता है।
दर्द की विरासतें साँसों में, कुछ ऐसे घुल जाती हैं,
कि धमनियों में रक्त नहीं, यादें कलरव करते मुस्कुराती हैं।
कोई कहे ना कहे, हर मन, हर वक़्त एक द्वन्द में रहता है,
जीत की आस में हर क्षण, जाने कितने दर्दों को सहता है।
वक़्त तो थमता नहीं, जाने हम कैसे थम जाते हैं,
औरों के किये की सज़ा, अपने अंतर्मन को दे जाते हैं।
आने वाले कल की कल्पना में, हम खुद को रोज़ जलाते हैं,
पर ये जो आज, कल बनता जा रहा है, इसे रुसवा कर जाते हैं।
धोखा स्थायित्व का, हर आँख पे पट्टी बन चढ़ जाती है,
और जीवन क्षणभंगुरता का मर्म, समझने में निकल जाती है।
हँसते चेहरे हीं तो, उदासियों का आवरण छिपाये जिये जाते हैं,
इस रात की सुबह होगी, बस इसी इंतज़ार में, उनके शब्द गुनगुनाते हैं।