जीवन के सफर में अनजाने मित्र
किसी ने सही कहा हैं:-
न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपु: ।
व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा ।।
अर्थार्थ:- न कोई किसी का मित्र होता है, न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से ही मित्र या शत्रु बनते हैं।
जीवन के सफर में हमें कभी-कभी कुछ ऐसे अनजाने लोग मिलते हैं जिन्हे हम अनजाने मित्र कहने से भी परहेज नही करते है, जिन्हें हम ना पहले जानते थे, और ना उसके बाद हम फिर मिलते हैं, पर कभी कभार हमारी स्मृतियो मे वो लोग आते है और उन पलों को जीवन्त करके चले जाते हैं। तब हमे वह मुलाकात के पल और यादें याद आती हैं तो मन को दुःख और खुशी का अनुभव करा जाती हैं। वैसे ही अपने जीवन की कुछ यादों को मैं लिखने की कोशिश कर रहा हूँ जो आपको अपनी सी लगेगी।
मेरे स्कूल के शुरुआती दिनों में जब मेरी उम्र सात आठ साल की रही होगी तो मेरी मित्रता मेरे स्कूल विवेकानंद हाई स्कूल में दो साथियों से हुई:-
पहला साथी ध्रुव रहा जो की मेरे गृह नगर दादरी के पास के गांव धूम मानिकपुर से आता था, और बड़ा स्नेह और प्रेम हमारा रहा और हमारी मित्रता कक्षा 2 से कक्षा 3 तक ही रही, वह बहुत ही चंचल और कुशाग्र बुद्धि का बच्चा था। और वहीं दूसरा मित्र अशोक रहा, जो कि इसी स्कूल का विद्यार्थी था और मेरे बहुत अच्छे मित्रों में से एक रहा और मेरे गृह नगर और मेरी कॉलोनी का ही था परंतु मेरा दुर्भाग्य, हमारी तब से अब तक कोई मुलाकात नहीं हुई यदा-कदा अशोक के पिताजी से मुलाकात हो जाती है तो उसकी कुशलछेम मिल जाती हैं।
इससे आगे मैं चलता हूँ अपने नए स्कूल केंद्रीय विद्यालय एन.टी.पी.सी. जिसमें मेरी पढ़ाई का सबसे लंबा समय गुजरा यहां पर मेरे मित्रों की संख्या भी ज्यादा रही और बिछुड़े मित्रों की संख्या भी ज्यादा रही जिसमें कुछ से फिर कभी मुलाकात नहीं हुई या बहुत कम हुई, जिसमें सबसे पहले नाम आता है मेरे मित्र कुलदीप का जो कि एक अच्छा गायक था मुझे उसका गया हुआ एक गीत आज भी यदा-कदा याद आ जाता है उस गीत के बोल हैं “हवा हवा ए हवा खुशबू लूटा दे” बहुत ही अच्छा व्यवहार रहा कुलदीप का और कक्षा 6 में वह भी हमारे स्कूल से चला गया। इसी स्कूल में एक नया मित्र बनता हैं शेखर राणा जिसका मेरे जैसा व्यवहार लड़ाई से डरने वाला, किसी से बहस न करने वाला, शांत रहने वाला और साइकिल को भी भैंसा बुग्गी की तरह रोकने वाला और साइकिल से गिरने के बाद यह कहने वाला कि इसमें तो ब्रेक लगाते हैं, मैं भूल क्यो जाता हूँ, बहुत प्यार और सभी की बातें सुनने वाला, वकालत की पढ़ाई करने वाला और जज की तैयारी करने वाला और अब गारमेंट्स की दुकान करने वाला मेरा भोला मित्र शेखर राणा। इसी स्कूल मे मेरा तीसरा मित्र रहा अजय नागर कक्षा 6 में मित्रता हुई मेरी आदतों से बिल्कुल विपरीत, लड़ाई किसी और की और वह अपने ऊपर ले लेना, बहस किसी और की और वह शुरू हो जाना, लड़ाई से ना डरने वाला, उड़ता तीर लेने वाला, पर मित्र बहुत सच्चा, मित्र बहुत अच्छा, हम दोनों के पिताजी सेना से ताल्लुक रखते थे, जिस कारण हम को मित्रता करना आसान रहा, आइडियल स्वभाव, डरना किसी से नहीं, पीछे हटना नहीं, वही मित्र था जिसके घर पर पहली बार गया, उसकी माँ का मेरी माँ जैसा दुलार उसके भाई बहन का भाई-बहन जैसा प्यार फौज में भर्ती होने के बाद उनका स्नेह और आशीर्वाद सदैव याद रहेगा।
इसी स्कूल का एक वाक्या मेरे जीवन का है जो, मैं जरूर यहां पर जिक्र करना चाहूंगा कक्षा 9 का वाक्य हैं, जब हमारी कक्षा के दो भाई अनिमेष और अनिरुद्ध चटर्जी मे से बड़े भाई के साथ वहां के लोकल लड़कों ने मार पिटाई कर दी और उसका हाथ फैक्चर हो गया, छोटे भाई से साथ वाले लड़कों ने पूछा तो उसने सारी बात बताई और लड़कों ने उसे उकसाया और उन लोकल लड़कों को स्कूल बुलाने की चेतावनी दे दी, स्कूल की छुट्टी हुई लोकल लड़कों ने रास्ता रोककर अनिमेष को बोला कि आ गए हम अब करो जो करना हैं, तो हमारी कक्षा के सभी बच्चे हस्तप्रभ रह गए उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि कोई आएगा भी परंतु वह आए और उसे और उसके साथियों को ललकारा और सभी निरुत्तर होकर मूक दर्शक बन गए और फिर मेरे जैसे डरपोक, शांतस्वभावी जो लड़की और लड़ाई दोनों से डरता था उसे अपनी आवाज बुलंद करनी पड़ी और उन सभी लोकल लड़कों को उन्हीं की भाषा में बगैर लड़ाई के निर्भीकता से उनका सामना करना और शांत कराके वहां से भेजने पर मजबूर किया, और अपनी कक्षा में एक अलग ही छवि बनाने पर मजबूर किया। सभी आश्चर्यचकित और भौचक्के होकर देखते रह गए अब चलते हैं।
अब हम मेरी 11 और 12 की पढ़ाई जो की सर्वहितकारी इंटर कॉलेज में हुई जहां पर मेरे अंदर की संकोची स्वभाव ने मेरा दामन छोड़ना शुरू कर दिया था मेरे व्यक्तित्व को पसंद करने वाले लड़के लड़कियाँ सभी थे, और यहां पर मेरे दोस्त बने मनोज सानू और रामेश्वर प्रसाद शर्मा दोनों ही अलग-अलग विद्या के स्वामी थे मनोज सानू बहुत अच्छा गायक था उसका पसंदीदा गाना “ओये राजू प्यार ना करियो” बहुत अच्छा व्यवहार और मेरा दूसरा ऐसा मित्र जिसके घर जाने का मौका मुझे मिला। सेना में भर्ती होने के बाद मेरी उससे बात आज भी याद हैं मुझे मन बहुत प्रसन्न हुआ। दूसरा मित्र रामेश्वर प्रसाद शर्मा नाम के अनुरूप शांत, सौम्य और संकोची स्वभाव का स्वामी, ना ही किसी से दोस्ती नहीं किसी से बैर स्कूल से घर और घर से स्कूल।
अब मेरे जीवन का नया अध्याय शुरू होने वाला था मेरे विद्यार्थी जीवन का समापन और वैवाहिक जीवन की शुरुआत का भी है और जीवन में अर्थ का महत्व समझाने का भी कालखंड होता है क्योंकि अब हमें अर्थोपार्जन करना पड़ता हैं, और अपने परिवार को आर्थिक सहयोग देना होता हैं, जिसमें मैं सौभाग्यशाली रहा और 12 में पढ़ते-पढ़ते ही सेना का हिस्सा बन गया अब अनजाने मित्रों का भी दायरा संपूर्ण भारत वर्ष हो गया। सेना मे भर्ती होकर ट्रेनिंग के लिए भेजा गया खुशी अपरंपार थी क्योंकि अपनी इच्छा की नौकरी पाना ऊपर से अपने ताऊजी और पिताजी के ट्रेनिंग सेंटर में ट्रेनिंग करने का अवसर इसी खुशी को दोगुना चौगुन कर रहा था। यहां पर बहुत मित्र बने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, मेरे व्यवहार का यहां पर मुझे बहुत फायदा रहा, हर कोई सम्मान की नजरों से देखता था कोई भी बदतमीजी नहीं करता था। अपनापन सभी से मिला और सभी को अपनत्व दिया यहां पर एक मित्र मिला नवीन जैसे वो गलती से सेना में आ गया हो संकोची, किसी को कुछ ना कहने वाला, मेरे साथ रहने पर अच्छा महसूस करने वाला, सेना की भाषा शैली से परेशान रहने वाला, अंतर्मुखी नवीन, गुमसुम नवीन, क्या-क्या कहूं नवीन के लिए उसकी एक बात याद आती रहती है वो कहता रहता था “भाई कहां फस गया मैं” और मैं कहता भाई कितनी प्रार्थनाएं की है मैने यहां फसने के लिए, तो वह कहता “भाई तू भी ना”।
एक ऐसा दोस्त यहां पर मिला जो कभी भुलाया नहीं जा सकता वह एक शायर, गायक, कलाकार और वह मेरा मित्र सरदार था। जिसका नाम था कुलदीप सिंह मुझसे सीनियर था पर ट्रेनिंग के बाद ना आने वाला शख्स और जब अपने डॉक्यूमेंट लेने के लिए आया तो सेना ने पकड़ा और सेना की जेल में डाल दिया वहां उससे मुलाकात हुई, उससे स्नेह हुआ, लगाव हुआ, जिसे कोई नहीं पूछता था उससे मैं बात करता, अपनापन दिखता, अपना बनाता, हमारा इतना प्यार हुआ जब उसको सेना से निकाला कर के घर भेजा गया तो उसका मुझसे मिलना मेरा पता लेना और घर से खत लिखना मेरे जवाब जाना उसके घर से उसके छोटे भाई का आना मुझसे मिलने के लिए आना और बहन की राखी लाना एक एक पल याद है। एक-एक पल उसके परिवार का प्यार सदैव याद रहता है उसकी बहनों का प्यार सदैव याद रहता है। उसके द्वारा मुझे कुछ रुपए मांगना और मेरी असमर्थता शायद मेरे जीवन की सबसे बड़ी हार रही, परंतु मेरा मित्र वह मेरे हृदय में सदा बना रहेगा।
इस श्रृंखला में आगे बढ़ते हैं ट्रेनिंग सेंटर से छुट्टी काटकर वापस आते समय रोडवेज बस में एक अनजान शख्स से मिलना जिनका नाम था ललित कुमार त्यागी एक स्कूल के प्राचार्य थोड़ी देर की मुलाकात कुछ बातें और एक किताब को पढ़ने के लिए उनका मुझे बोलना जिस किताब का नाम था “जीत आपकी” उस किताब को खोजना और खरीदना और बहुत पसंद करना और उसे अनजाने शख्स का आभार व्यक्त करना।
ट्रेनिंग सेंटर छोड़कर पहली तबादला अपनी पसंद की जगह जम्मू कश्मीर में जाना और असली सेना को देखना का सौभाग्य मिला और 5 दिसंबर 2002 के दिन मुझे छुट्टी जाना था सुबह-सुबह एक संप्रदाय के पूज्य संत सतगुरु के देहात का समाचार टीवी पर देखा बहुत दुख पहुंचा क्योंकि मैं भी इसी संप्रदाय से जुड़ा हुआ हूँ ट्रेन में रिजर्वेशन था ऊपर की सीट पर बैठा था और एक भारी भरकम शख्स को देखा और सोचा रात भर यह परेशान हो जाएंगे तो उनको अपने साथ बैठने के लिए बोल दिया वह बैठे उनके नाम पवन शर्मा और वह भी उसी संप्रदाय के अनुयायी थे और आगरा जा रहे थे। बस इतनी मुलाकात भर रही पर याद आना आज भी है। ऐसा ही एक और वाक्य हुआ न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन से सफर करने के दौरान एक सज्जन जिनका नाम मनोज था उनको भीड़ से भारी ट्रेन में साथ में बैठने के लिए बोलना वो बिहार के किसी स्टेशन पर उतरे पर आत्मीयता बहुत और वादे भी बहुत पर अब यादें ही रही। जम्मू रेलवे स्टेशन से दो सीट थी दिल्ली के लिए मैं और मेरी धर्मपत्नी थे और दो नवयुवक जो वहीं पर परेशान होकर घूम रहे थे एक का मोहित शर्मा और एक उसका मित्र जिसकी भाषा शैली को धर्मपत्नी ने सुना और बोला कि तुम लोगों की भाषा मेरे ननिहाल से मिलती-जुलती है मेरे ननिहाल का नाम खेर है, तो वह आश्चर्यचकित रह गए और बोले हां दीदी जी हम भी उसी गांव के हैं और यहां रेलवे की परीक्षा देने आए थे तो उनके साथ बातचीत और एक सीट को उनको देना याद है, फिर उनके साथ उनके गांव में मुलाकात याद है।
सिक्किम की राजधानी गंगटोक में एक Class के दौरान एक मित्र बनाना जिसका नाम युधिष्ठिर था और उसे प्यार से धर्मराज कहकर संबोधित करना उसकी प्रतिभा डायरी लेखन से प्रेरित होना और फिर कभी न मिलने वाली विदाई आज भी याद है।
अगला तबादला होता है पुरकाजी मुजफ्फरनगर मित्र बनते हैं एक फोटोग्राफर अजय गुप्ता हंसमुख मिलनसार और अपनापन दिखाने वाला व्यवहार पहला शख्स जिससे आज भी संपर्क है, उसकी शादी में जाना और उसके परिवार से मिलना और बहुत आत्मीयता। उसके बाद पुरकाजी में ही उम्र से बड़े अपनापन अपनों जैसा इंतजार और लगाव अपनों से भी ज्यादा जब जरूरत हो तब हाजिर जिनका नाम था नरेंद्र कुमार, उसी कार्यकाल के दौरान उनकी स्वर्ग के लिए विदाई भी इनकी मुलाकातों और प्यार भरी बातों को याद करके मन बहुत दुखी और आहत होता है, और सदैव के लिए हृदय में समा गए।
अगला तबादला होता हैं अवंतीपुरा श्रीनगर कश्मीर में मित्र बने एक अंतर्मुखी बहू प्रतिभा संपन्न सेना से सेवानिवृत हवलदार रामकृष्ण किचलू, जिनकी जितनी प्रशंसा करू काम है ज्ञान की खान कहूं तो भी कम हैं, ज्ञान का प्रकाशकुंज कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, हर विषय पर हर मुद्दे पर सटीक तथ्य और जानकारी पहला शख्स जिससे मिलने पर पता चला कि वह भी पुराने संघी रह चुके हैं, कश्मीरी पंडितों की व्यथा को भुगतने वाले एक नेक दिल ज्ञानवान मिलनसार शख्सियत वहीं पर इसी कार्यालय में हमारे साथ अब्दुल्लाह शाह, एक नेक दिल मिलनसार जय राम जी की बोलने वाले व्यक्ति खुलकर कहने वाला की 10 परसेंट ने कश्मीर को नर्क बना रखा है ,अपने बच्चों को विदेशों में पढाते हैं, और हमारे बच्चों से पत्थर मरवाते हैं ना मारे तो हमको मरवाते हैं, CRPF में लगे अपने बेटे को नौकरी छुड़वानी पड़ी केवल अलगाववादियों के डर से।
निर्मलता चेतनता और सभी के लिए समर्पित एक शख्स देखा जिसका नाम था नितिन कुमार शर्मा, एक अनोखी शख्सियत हर समय मुख में राम-राम जपने वाले किसी का अहित न सोचने वाले जिनकी पहचान उनके नाम से नहीं राम-राम साहब से थी, किसी के मागने पर बगैर सोचे नई साइकिल दे देना, अनजान शख्स को पैसों की जरूरत पर ATM दे देना, एक अनोखी एक अनमोल आत्मा जिसका सानिध्य जीवन में जीवनपर्यंत याद रहेगी।
तबादला होता हैं मानेसर गुरुग्राम में मित्र बने अशोक कुमार मिश्रा जी मधुर व्यवहार, शांत स्वभाव, केवल काम से काम अन्यथा कोई बगैर मतलब कोई बातचीत नही और अपनापन और मित्रता के बाद जब हम बिछुड रहे थे, तब वो बोलते हैं कि आपसे दोस्ती के बाद मुझे राजनीति और धार्मिक क्रिया-कलाप मे मेरी रूचि जगी, और अपने अंदर बदलाव किए अपने खान-पान को लेकर और अपनी सोच को लेकर बहुत बदलाव आयें जीवन मे।
इन्हीं छोटी-छोटी यादों को याद करना और कलमबद्ध करना बहुत अच्छा लगा मैं उम्मीद करता हूँ आपको भी इन बातो को पढ़कर अपने जीवन की बहुत यादों को याद करने के लिए मजबूर करेंगी।
किसी ने सही कहा हैं:-
आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा ।
निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥
अर्थार्थ:- चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष – मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है।
धन्यवाद