“जीवन की वास्तविकता”
मन मलिन हो गए हैं सबके, सबके मन में स्वार्थ है ।
सब अपना- अपना सोच रहे, अब रहा नही परमार्थ है ।।
जीवन की देख विषम घटनाएं, कैसे अब मैं धीर धरूँ ।
अंतर्मन में जो द्वंद उठा, मैं कैसे इसको शांत करूँ।।
निज स्वार्थ सिद्धि में सिमट गई, वसुधैव कुटुम्बकम की परिभाषा।
साथ मे छिनती चली गयी, जीवन की हर एक अभिलाषा।।
प्रतिदिन पथ में ललचाई, नजरों से हमें देखते हैं ।
वो बच्चे जिनका प्यार बचपन , निष्ठुर जीवन ने निगल लिया।।
हैं हम सब इसके उत्तरदायी, मैं कैसे खुद को माफ करूँ ।
अंतर्मन में जो द्वंद उठा, मैं कैसे इसको शांत करूँ।।
अपनी खुशियों को त्याग के जिसने, पूरी की हर अभिलाषा ।
साथ मे खेले, साथ मे कूदे, जीवन को दी एक परिभाषा।।
रहते हैं हम महलों में, और स्टेटस भी है बड़ा-बड़ा।
जो हैं जन्मदात्री और जीवनदाता, एक पल में उनको भुला दिया।।
विकृत हुए सभ्य समाज का, कैसे मैं प्रतिकार करूँ ।
अंतर्मन में जो द्वंद उठा, मैं कैसे इसको शांत करूँ।।
जैसे – जैसे बड़े हुए हम, अपनापन सब भूल गए ।
बचपन के मित्रों की टोली, व्हाट्सएप में सब झूल गए।।
पास – पड़ोसी और मित्र मंडली, की दुनिया अब है सिमट गयी।
अपनेपन की परिभाषा, बस चारदीवारी में लिपट गयी ।।
हम सब के दूषित मन को अब मैं, कैसे करके स्वच्छ करूँ ।
अंतर्मन में जो द्वंद उठा, मैं कैसे इसको शांत करूँ।।
अमित गुप्ता
शाहजहाँपुर (उत्तर प्रदेश)