जीवन की अनसुलझी राहें !!!
न जाने कैसी धुंध में हम आज घिर गए
जाना था घर अपने कही और निकल गए
क्या हुआ जीवन में क्या आंधी निकल गयी
उड़ गया सब कुछ, पूँजी शेष नही बची l
माना कि पैर में न कोई बेड़िया थी डली
पर दूर तक जाने से ये बेबस क्यो हुई
आज शक्ति बाजुओं की कमजोर हो रही
खर्चा मेरे तन का बड़ी बोझ सी लग रही l
रोटी को भटकते दर-दर की ठोकरे खाई है
कपड़ा जो तन पर है चिथड़े से काम चलाई है
सिर ढकने को छत हो ये आस में दिन गए
न छत मिली सिर पर, ओले और पड़ गए l
न जाने कैसी धुन्ध में हम आज घिर गए
जाना था घर अपने कही और निकल गए
आग है ये पेट की, जलती भट्टी रोज है
बड़ी ही मेहनत से कमाई यहाँ हमने नोट है l
संभल न पाए कदम यहाँ खाई बड़ी चोट है
महगाई ने है मारी, जैसे करीब सबकी मौत है
कौन ले सुध हमारी यहाँ सब बने है राजा
उनका बस काम ऐसा खींचे सबका है मांजा l
न जाने कैसी धुन्ध में हम आज घिर गए
जाना था अपने घर कही और निकल गए।
shyam Kumar Kolare
Social Activist,
Chhindwara