जीवन का सार
गृहस्थी का दायित्व,
कब अवसान देता है,
गाड़ी-सा जीवन
जिम्मेदारियों की
सड़क पर,
सरपट दौड़ता है,
अहर्निश
अविराम।
स्व मनोरथ
श्रम-भट्ठी में
झोंकता है,
स्वजनों के
काम्यदान
के लिए।
तब
प्रमोद-सरिता
अविरल
बहती है,
परिजनों को
भिगोती है
अपने सुखदायी
मेघपुष्प से।
कर्तव्यों की
वृत्ति
अंततः
जीर्ण बना देती है,
पराश्रित बना देती है।
बस
यही है
जीवन का सार।