धरती का बुखार
**धरती का बुखार**
क्यों बढ़ता है तेरा बुखार क्यों हिलती है तू बार-बार।
तू क्यों लगती है उदास क्यों नहीं मिटी सबकी प्यास।।
पक्की सड़कें पीठ हमारी खत्म हो गई घास बिचारी।
पेड़ कट रहे ताल पट रहे नदियों ने भी आस बिसारी।।
मुझको मां, सूरज को बाप कहके करते हो तुम जाप।
मेरे तन के वसन छिन रहे कैसे सहूँ रवी कर ताप।।
खोद-2 छलनी कर डाला नदियां सभी बन गईं नाला।
अमृत पान सभी ठुकराके पीने लगे ‘टका’ भर प्याला।।
दिनकर को क्या रूप दिखाऊं ! कैसे मैं श्रंगार करूं ?
ग्लोबल होकर छोड़ो हिंसा मैं तो तुम्हीं से प्यार करूं।।