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27 Feb 2022 · 2 min read

*जीवन का चक्र*

जीवन का चक्र
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इस संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है जो महत्वपूर्ण हो । बुरी से बुरी तथा अच्छी से अच्छी परिस्थिति को तटस्थ भाव से देखो। इसमें अनोखापन कुछ भी नहीं है । यह सब काल का प्रवाह है । एक मनुष्य का जीवन केवल सौ वर्ष का होता है । सृष्टि के हजारों – लाखों वर्षों की तुलना में यह सौ वर्ष कहाँ ठहरते हैं ?
जैसे समुद्र में लहरें निरंतर उठ रही हैं और उठ कर बिखर जाती हैं ,ठीक वैसे ही मनुष्य इस मृत्युलोक में जन्म लेते हैं ,अपना जीवन बिताते हैं ,क्रियाकलाप करते हैं और फिर सृष्टि में विलीन हो जाते हैं । न समुद्र में किसी लहर की कोई गिनती होती है और न ही संसार के काल – प्रवाह में किसी मनुष्य के जीवन का कोई अर्थ है । कठपुतली के समान मनुष्य जीवन को जीता है । बस उसे कर्म करने की स्वतंत्रता है । घटनाओं पर प्रतिक्रिया किस प्रकार से देनी है ,इसकी आजादी है । सबसे बड़ी बात है उसकी कार्यपद्धति । कार्य के प्रति मस्तिष्क में उठने वाले उतार – चढ़ाव किस भावना के साथ किए गए हैं ,वह दिव्य – विधान के लेखे में अंकित हो जाते हैं । उसी के आधार पर अगले जन्म की यात्रा तय होती है । न जाने कितने जन्म मनुष्य इस संसार में ले चुका है। आवागमन का चक्र अनवरत रूप से सैकड़ों – हजारों जन्मों से चल रहा है । जीवन का लक्ष्य इसी आवागमन के चक्र से मुक्ति पाकर परमात्मा में सदैव के लिए मिल जाना है । इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए व्यक्ति बारंबार प्रयास करता है ।
हर जन्म में कर्म के बंधन की कोई गाँठ पड़ जाती है , जिसे खोलने के लिए संसार में फिर से जन्म लेना पड़ता है । विडंबना यह है कि नए जन्म में अनेक बार वह पुरानी पड़ी हुई गाँठ तो खुल जाती है ,पुराने संस्कार लाभ देते हैं और हम आगे की यात्रा पिछली यात्रा की उपलब्धियों के साथ शुरू करते हैं। यह सब तो ठीक-ठाक चलता है लेकिन कर्म की गति क्योंकि बहुत जटिल है ,इसलिए नए जन्म में दो-चार कर्मबंधन की गाँठें और पड़ जाती हैं । अब उन नई पड़ी हुई कर्मबंधन की गाँठों को खोलने के लिए हमें जन्म लेना पड़ता है । यह सिलसिला आसानी से नहीं रुकता ।
संसार को परमात्मा की लीला समझते हुए हर कार्य को रंगमंच पर निभाए जा रहे अभिनय के जैसे समझकर जीवन को जीने से ही कर्म – बंधन से मुक्ति संभव है। हम दृश्य का हिस्सा बनते हुए भी नहीं बनें अपितु दर्शक की भाँति कार्य में अपने को संलग्न करते रहें। उसके लाभ – हानि , जय- पराजय आदि से अपने को अलग रखें। इस प्रकार कार्य – पद्धति का आश्रय लेकर कर्म बंधन की गाँठें शायद न लगें।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451

Language: Hindi
Tag: लेख
273 Views
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