जीवन का खेल
हे प्रभु! ये कैसी लीला है तेरी
क्या सोच रहा है तू, क्या विचार है तेरा
जो नित्य ही मुझे असंमजस के भंवर में ढकेल रहा है।
क्या इतना कर्जदार बना कर भी
तुझे संतोष नहीं हो रहा है,
जो अभी भी कर्जदार बनाता जा रहा है।
वैसे भी मुझे तो लगता है
कि पिछले जन्म का कर्ज भी
चुकता नहीं कर पाया हूँ अभी,
और तू अगले जन्म में कर्जदार ही
भेजने का इंतजाम किए जा रहा है,
तभी तो रोज रोज नये नये
क़र्ज़ का बोझ बढ़ाता जा रहा है।
तू कुछ भी कहे या करे
मैं तेरी लीला जान रहा हूँ,
ये तेरे क़र्ज़ का खेल है या खेल का कर्ज है
इसका तो कुछ पता नहीं
पर हमारे तुम्हारे रिश्तों का यही तो मेल है
और यही जीवन का खेल है,
इस खेल का तू ही निर्णायक भी है
क्या परिणाम होगा, तू पहले से ही सब जानता है,
बस मुझे उलझाए रखना चाहता है,
तभी तो मैदान में अकेला छोड़ मुझे
तू दूर से चुपचाप मुझ पर निगाह रखता है
और कुछ भी बताता नहीं, सिर्फ मुस्कराता है
पर कभी अकेला भी नहीं छोड़ता है।
सुधीर श्रीवास्तव