जीवन और प्रेम
जीवन की धूप में थक कर
मैंने प्रेम की छांव खोजी..
प्रेम की आंच में तप कर
मैंने कला की पौध रोपी..
इस पौध की ओट से
अब भी आती है
जीवन की धूप
छनते हुए..
अपने तापमान में
कुछ गिरावट लिए,
मगर प्रेम की आंच
नहीं आती..
जरा भी
नहीं आती..
कैसे आएगी भला???
वो चिपकी रहती है
इस पौध की जड़ से
पोसती है इसे
खाद बनकर..
03/06/20
~ रिया ‘प्रहेलिका’