जीवन इनका भी है
बैठ जाती हूँ मैं जमीं पर
थक हारकर उस समय ,
जब नन्हें हाथों को देखती हूँ
हाथ फैलाएं भीख मांगते हुए ,
दर – बदर , दर – बदर।
सोचती हूँ जीवन इनका भी है ,
जो अभी ठीक से जमीं पर खड़ा भी न हुए है,
और भागने लगे पेट पालने के लिए,
इधर – उधर , इधर – उधर।
ठीक से भोजन भी इन्हें कहाँ नसीब होता है ।
कहाँ इनके तन पर कोई कपड़ा भी होता है।
नंगे पाँव ही भागते रहते है ,
यहाँ – वहाँ , यहाँ-वहाँ।
गर्मी भले ही इनको तपाती हो।
बरसात भले ही इन्हें भिगाती हो ।
भले ही ठंड इन्हें ठिठुड़ाती हो।
पर इनके कदम कहाँ रूकते हैं,
अपना पेट पालने के लिए ये
भागते, भागते और भागते ही रहते हैं।
किसी ने चंद सिक्के क्या दे दिये!
किसी से कुछ खाने का
सामान क्या मिल गया,
इनके चेहरे पर मुस्कान खिल जाता है,
ऐसे मानो उनको जन्नत मिल गया हो ।
इनको जब छोटे-मोटे खिलोने या
गुब्बारा बेचते हुए देखती हूँ तो,
एहसास होता की सब्र किस कहते हैं।
जो खिलोने से खेलने की इच्छा को,
मारकर खिलोने को बेचते है।
आते जाते न जाने कितनों की,
नजरें उन पर पड़ती है ।
पर कितने है जो उनका दर्द बाँटते हैं।
या चंद समय स्ककर उनकी
बात सुन लेते।
लेकिन एक दिन ये बच्चे भी समय से लड़ते हुए ,
अपने को मजबूत बना ही लेते हैं।
जीवन ये भी जी ही लेते है।
रोज संघर्ष करते है पर हार नहीं मानते है।
खुली आसमान को छत बनाते है,
और धरती को बिछावन,
जहाँ जगह मिल जाए ,वही सो लेते है
अफसोस इस बात का है हमें की
हम इनको भर पेट भोजन भी नही दे पाते है।
काश हम कुछ ऐसा कर पाते
इनका बचपन इन्हें जीने देते।
पेट भर भोजन और हाथ मै किताब दे पाते।
इनका बचपन इनको लोटा पाते।
काश इनका जीवन भी हम आम
बच्चों की तरह ही कर पाते ।
इनके जीवन को भी हम सँवार पाते।
~अनामिका