जीने के पूर्व
मैंने पुस्तक पढ़ा‚
पुस्तक पढ़कर जिन्दगी जीना चाहा।
कोई स्द्धिान्त‚कोई आदर्श
अपनाना चाहा।
जैसा लिखा वैसा जीना चाहा।
सारा कुछ साबित हुआ
सिर्फ शब्द या अक्षर।
सारे अर्थ बदले हुए।
न आगोश में लेने को आतुर गाँव।
न रोजी–रोजगार बाँटता शहर।
न चलने को कोई साफ सुथरी सड़क
या गली।
न सुस्ताने को सराय।
न मिला वायदे के मुताबिक
उबला हुआ पानी
न ही ठण्ढ़ी चाय।
पिरोकर हरफों को सूई में
जिन्दगी में टाँकना चहा।
बहुत डूबकर गहरे
इस समुद्र के
एक संज्ञा अपने लिए छाँकना चहा।
वक्त ने और भूख ने
युग के कच्छपी पीठ पर
टिकाकर मुझे जब मथा
अस्तित्व के अमृत के लिए।
इस मंथन के अग्नि दहन में
मेरे साथ रहा मेरा चिथड़ा शरीर मात्र
जल गयी सारी पुस्तकें
जाने किस मृत के लिए।
चौपड़ था सारा कुछ
कुरूक्षेत्र यदि धर्मक्षेत्र था तो
महाभारत जैसा महासमर क्यों?